दिल्ली में वायु प्रदूषण पर अंकुश लगाने के प्रयासों में एक बार फिर अदालती अड़चन पैदा हो गई है। दिल्ली उच्च न्यायालय ने पूछा है कि सरकार क्यों पंद्रह दिनों तक प्रायोगिक तौर पर सम और विषम गाड़ियों का नियम लागू रखना चाहती है। एक हफ्ते में प्राप्त नतीजों के आधार पर इसे पहले ही क्यों नहीं समाप्त किया जा सकता। हालांकि दिल्ली सरकार का कहना है कि इस नियम के चलते दिल्ली की हवा में पीएम 2.5 कणों की मात्रा काफी कम हुई है, मगर कुछ जगहों के आंकड़े अब भी संतोषजनक नहीं हैं। सर्दी में यों भी हवा में नमी होने के कारण धरती की सतह के करीब धूल और धुएं की परत गाढ़ी हो जाती है। ऐसे में गाड़ियों से निकलने वाला धुआं उसकी सघनता और बढ़ा देता है। इसलिए कुछ लोगों की याचिका पर सुनवाई करते हुए दिल्ली उच्च न्यायालय ने सरकार से पूछा कि वास्तव में प्रदूषण की मात्रा में कितनी कमी आई है।
दरअसल, सम और विषम नंबर वाली कारों का नियम लागू होने के बाद से लोगों को खासी परेशानी का सामना करना पड़ रहा है। प्रायोगिक तौर पर सम और विषम नंबरों वाला नियम लागू करने को उचित ठहराते समय सर्वोच्च न्यायालय ने कहा था कि इसके साथ ही सरकार सार्वजनिक परिवहन व्यवस्था को भी दुरुस्त करे, ताकि लोगों को आवागमन में असुविधा न हो। मगर इस दिशा में अपेक्षित सुधार नहीं आ पाया है। दिल्ली उच्च न्यायालय ने इसकी वजह से पैदा हो रही परेशानियों को ध्यान में रखते हुए ही सम-विषम नंबरों वाले नियम को जल्दी वापस लेने के बारे में पूछा है।
इस नियम को लागू करने की घोषणा के साथ ही इसका विरोध शुरू हो गया था। तभी स्पष्ट था कि यह नियम सफल नहीं हो सकता। मगर सर्वोच्च न्यायालय ने कहा कि प्रायोगिक तौर पर इस नियम को लागू करके नतीजा देख लेने में कोई हर्ज नहीं है। दिल्ली उच्च न्यायालय के ताजा हस्तक्षेप से इस नियम का विरोध करने वालों को एक आधार मिल गया है। जाहिर है, इस नियम को स्थायी तौर पर लागू करना संभव नहीं हो पाएगा। दरअसल, दिल्ली में वाहनों से पैदा होने वाली परेशानियों से पार पाना खासा जटिल हो गया है। एक तो सार्वजनिक परिवहन व्यवस्था सुविधाजनक न होने के कारण बहुत सारे लोगों को मजबूरन अपने वाहनों का प्रयोग करना पड़ता है। दूसरे, बहुत सारे लोगों ने अपनी गाड़ी से चलना प्रतिष्ठा का प्रश्न बना लिया है।
जिन इलाकों में मेट्रो और दिल्ली परिवहन निगम की बसों की अच्छी सुविधा है, वहां के लोग भी इनके उपयोग के बजाय अपनी गाड़ियों में चलना ज्यादा सुविधाजनक समझते हैं। सार्वजनिक परिवहन से चलने की संस्कृति दिल्ली में पनप ही नहीं पाई है। फिर गाड़ियों की बिक्री को लेकर सख्त नियम-कायदा न होने की वजह से भी कारों का अतार्किक इस्तेमाल बढ़ा है। अभी बड़ी डीजल गाड़ियों की बिक्री पर कुछ समय के लिए रोक तो लगा दी गई है, पर यह कोई व्यावहारिक नियम का रूप ले पाएगा, कहना मुश्किल है। सवाल यह नहीं है कि जो लोग निजी वाहनों से चलने का खर्च उठा सकते हैं, उन्हें ऐसा करने से क्यों रोका जाना चाहिए। सवाल है कि अगर कुछ लोग अपनी सुविधा के नाम पर दूसरों के लिए स्वास्थ्य संबंधी परेशानियां पैदा कर रहे हैं तो उन्हें क्यों नहीं रोका जाना चाहिए।