दिल्ली अनियोजित विकास की एक ऐसी तस्वीर है, जहां हमें एक तरफ झुग्गियां दिखाई देती हैं, तो दूसरी ओर गगनचुंबी इमारतें। नतीजा यह कि यहां सघन बस्तियों से लेकर औद्योगिक क्षेत्रों में आग लगने से बड़े नुकसान का जोखिम हमेशा बना रहता है। भीषण गर्मी के दिनों में आग लगने की घटनाएं प्राय: सामने आती हैं। यहां आधुनिक कही जानी वाली कई मंजिलों वाली रिहायशी इमारतें बनाने की इजाजत तो दी गई, लेकिन वहां अग्नि सुरक्षा इंतजामों में जिस तरह की लापरवाही बरती गई, उसका खमियाजा अब उनमें रहने वाले नागरिकों को भुगतना पड़ता है।
इन इमारतों में आग बुझाने के उपकरण जरूर लगाए गए, पर इसकी जांच-परख महीनों तक नहीं होती। द्वारका में मंगलवार को जिस बहुमंजिला इमारत में आग लगी, वहां अग्नि शमन के पुख्ता उपाय किए गए होते, तो एक पिता और उसकी बेटी तथा भतीजे की मौत न होती। दरअसल, आग की इस घटना के वक्त लपटों से बचने के लिए इन तीनों को जब कोई विकल्प नहीं सूझा तो वे बालकनी से नीचे कूद गए और उनकी जान चली गई।
इस घटना के लिए कौन जिम्मेदार है? यह निराशाजनक है कि इमारतों में अग्निशमन के सामान्य उपकरणों को ही पर्याप्त मान कर अधिकारी अनापत्ति प्रमाणपत्र दे देते हैं। द्वारका की जिस इमारत में आग लगी, उसकी नीचे की मंजिलों पर लोग खिड़कियां तोड़ते और बालकनी से बचाने की गुहार लगाते देखे गए। इससे साबित होता है कि इमारत की सभी मंजिलों पर आग से बचाव के लिए कारगर उपाय नहीं किए गए थे।
यह जानते हुए भी कि न केवल रिहायशी, बल्कि औद्योगिक इलाकों में हर वर्ष आग लगने की घटनाएं होती हैं, तो रोकथाम के उपाय पहले ही क्यों नहीं किए जाते? समय-समय पर जांच क्यों नहीं होती कि उपकरण काम कर भी रहे हैं या नहीं? बार-बार ऐसे हादसे न हों, इसके लिए अब जवाबदेही तय करने की जरूरत है।