दिल्ली के शकरपुर इलाके में एक किशोर की हत्या और उससे संबंधित जो ब्योरे सामने आए हैं, वे किसी भी संवेदनशील व्यक्ति और समाज को परेशान करने के लिए काफी हैं। नौवीं कक्षा में पढ़ने वाले तीन नाबालिग बच्चों ने अपनी ही उम्र के एक दोस्त की हत्या सरेआम चाकू घोंप कर कर दी। इसके पीछे जो कारण सामने आए हैं, वे समूचे समाज और सरकार को अपनी विकास नीतियों पर एक बार ठहर कर विचार करने को मजबूर करते हैं। मारे गए किशोर ने नया मोबाइल फोन खरीदा था, उसके तीनों दोस्तों ने उसे इसी खुशी में दावत देने को कहा और मना करने पर उसे मार डाला।
अब आरोपी किशोरों के बारे समाज यही सोच कर रह जाएगा कि उन्होंने अपराध किया और उन्हें सजा मिली। मगर ऐसे मामलों की त्रासदी यहीं तक सीमित नहीं है। पिछले कुछ समय में ऐसे अनेक मामले सामने आए हैं, जिनमें स्कूली बच्चों या किशोरों के भीतर भी बेलगाम आक्रामकता, हिंसक बर्ताव और आपराधिक प्रवृत्ति देखी जा रही है। सवाल है कि छोटी उम्र में बच्चों के भीतर इस बदलाव का स्रोत कहां है। नए मोबाइल की दावत जैसी बेहद मामूली बात क्या इतनी गंभीर आक्रामकता पैदा कर सकती है कि तीन किशोर अपने ही दोस्त पर चाकू से हमला कर दें?
मोबाइल से बच्चों के विवेक पर नकारात्मक असर
लगता है कि समाज और परिवार की कमजोर होती कड़ियों के बीच आधुनिक तकनीक की दुनिया में गुम होने की अति ने मानसिक स्थितियों को व्यापक पैमाने पर प्रभावित किया है। खासकर बच्चों के कोमल मन-मस्तिष्क पर इसका खासा असर पड़ रहा है और वे गंभीर संवेदनात्मक उथल-पुथल का शिकार हो रहे हैं। ज्यादातर बच्चों की आसान पहुंच स्मार्टफोन और इंटरनेट की असीमित दुनिया तक होने लगी है, जहां सोचने-समझने और व्यवहार को प्रभावित करने वाली सामग्री भरी पड़ी है।
बच्चों के विवेक पर इसका गंभीर और नकारात्मक असर पड़ रहा है। इसका खमियाजा कई बार बाहर, घर या स्कूल में उनके आक्रामक या हिंसक होने के रूप में सामने आ रहा है। अगर लोगों और खासकर बच्चों की सोच-समझ और व्यवहार पर असर डालने वाले कारकों का संतुलन बनाने को लेकर ठोस पहलकदमी नहीं हुई, तो बच्चों की दुनिया सबके लिए चिंता का कारण बन सकती है।