दिव्यांग जनों को सामान्य नागरिक अधिकार और सम्मानजनक जीवन जीने के अवसर सुनिश्चित कराना सरकारों के सामने बड़ी चुनौती है। शिक्षा का स्तर ऊंचा होने के बावजूद, आज भी ऐसे लोगों के प्रति हमारे समाज का नजरिया संकुचित और अनेक बार अमानुषिक ही देखा जाता है। हालांकि सरकारें ऐसे बच्चों की पढ़ाई-लिखाई, चिकित्सा, प्रशिक्षण आदि के लिए अलग से वित्तीय प्रबंध करती हैं, इनके लिए चलाए जा रहे केंद्रों को प्रोत्साहित करती हैं। फिर भी दिव्यांग जनों के जीवन में अपेक्षित बेहतरी नजर नहीं आती। इसलिए कि बहुत बार न केवल समाज के सामान्य लोगों, बल्कि उनके लिए विशेष रूप से चलाए जा रहे केंद्रों का दृष्टिकोण भी अमानवीय ही होता है।
इसका ताजा उदाहरण देहरादून के एक केंद्र में मानसिक रूप से कमजोर दो सगे भाइयों के साथ क्रूर व्यवहार और यौन शोषण का है। यह केंद्र विशेष लालन-पालन और शिक्षा की दरकार वाले बच्चों के लिए खोला गया था। उसमें छात्रावास का भी प्रबंध था। खबर के मुताबिक, दिल्ली की एक संस्था ने देहरादून में किराए के भवन में यह केंद्र खोला था। मगर उस केंद्र में बच्चों की देखरेख करने वाला एक कर्मचारी वहां के बच्चों का यौन शोषण और शारीरिक रूप से प्रताड़ित करता था।
आरोपी कर्मचारी को कर लिया गया गिरफ्तार
सगे भाइयों ने अपनी मां से आपबीती बताई, तो उसने प्राथमिकी दर्ज कराई। आरोपी कर्मचारी को गिरफ्तार कर लिया गया है। राज्य बाल कल्याण समिति ने इस मामले में सख्त कदम उठाते हुए केंद्र को बंद करा दिया है। पर यह सवाल अपनी जगह है कि इससे कितने ऐसे केंद्र सबक लेंगे। यह कोई पहली घटना नहीं है। दिव्यांगजनों, महिलाओं, अनाथ बालिकाओं, बेसहारा बच्चों के लिए बने केंद्रों में प्रताड़ना और यौन शोषण के मामले अक्सर उजागर होते रहते हैं। प्रताड़ना, दुर्व्यवस्था आदि से परेशान होकर अनाथालयों, बाल सुधार गृहों से बच्चों के पलायन की खबरें भी जब-तब सुनने को मिल जाती हैं।
हर बार ऐसे केंद्रों की व्यवस्था दुरुस्त करने के संकल्प दोहराए जाते हैं, पर नतीजा वही ढाक के तीन पात रहता है। इस प्रवृत्ति के पनपने के पीछे बड़ी वजह है कि दिव्यांगों, बेसहारा बच्चियों आदि के लिए चलाए जाने वाले केंद्रों का मकसद लाभ कमाना अधिक होता है। उनकी नजर सरकारी योजनाओं के तहत मिलने वाली वित्तीय मदद पर अधिक रहती है। यही वजह है कि दिव्यांग बच्चों की शिक्षा-दीक्षा के लिए प्रशिक्षित और निष्ठावान अध्यापकों, पालकों, कर्मचारियों की जरूरत को सिरे से अनदेखा किया जाता है। ज्यादातर जगहों पर घरेलू सहायक और सामान्य रसोइया किस्म के कर्मचारियों से काम चलाया जाता है।
संस्था चलाने वालों में करुणा पैदा होना जरूरी है
दिव्यांग जनों, खासकर मानसिक रूप से दुर्बल माने जाने वाले विशेष बच्चों की देखरेख और शिक्षण-प्रशिक्षण के लिए प्रशिक्षित कर्मचारियों की जरूरत होती है। ऐसे कर्मचारी तैयार करने के लिए विशेष प्रशिक्षण संस्थान भी चलाए जाते हैं। मगर सरकारी अनुदान से स्वयंसेवी संगठनों द्वारा चलाए जा रहे बहुत सारे केंद्रों में धन की बचत के लोभ में कम वेतन पर अक्सर अप्रशिक्षित और गैर-जिम्मेदार कर्मचारी भर्ती कर लिए जाते हैं।
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यह कल्पना करना भी मुश्किल है कि जो बच्चे जन्म से दिव्यांगता का दंश झेल रहे हैं, उनके मन पर ऐसे केंद्रों के कर्मचारियों के अमानुषिक व्यवहार का कैसा प्रभाव पड़ता होगा। ऐसी घटनाएं केवल कुछ कानूनी नुक्तों के आधार पर की जाने वाली कार्रवाइयों से नहीं रुकने वालीं। संस्था चलाने वालों में करुणा पैदा होना जरूरी है।