यही वजह है कि देश के औद्योगिक क्षेत्रों में लाखों मजदूर और कर्मचारी दमघोंटू जहरीली आबोहवा और हर समय किसी बड़े हादसे के जोखिम में काम करने को विवश होते हैं। लुधियाना में जहरीली गैस से ग्यारह लोगों की मौत इसका ताजा उदाहरण है।
बताया जा रहा है कि जिस इलाके में जहरीली गैस फैलनी शुरू हुई, वहां सघन बस्ती है और आसपास करीब चालीस ऐसे कारखाने हैं, जो अपना रसायन रात को चोरी-छिपे सीधे सीवर, यानी जिन नालियों के जरिए शहरी जल-मल का निस्तारण किया जाता है, उसमें बहा देते हैं। रविवार की सुबह उन रसायनों से जहरीली गैस बनी और एक मिनट से भी कम समय में ग्यारह लोगों को लील गई।
बहुत सारे लोग बेहोशी की हालत में अस्पतालों में भर्ती कराए गए। उन्हें याद भी नहीं कि उन्हें हुआ क्या था। यानी गैस का प्रभाव इतना तीक्ष्ण और मारक था कि लोगों को उसका क्षणिक अहसास भी नहीं हुआ। प्राथमिक जांचों से पता चला है कि लोगों की मौत दम घुटने से नहीं, बल्कि उनके मस्तिष्क पर आघात पहुंचने की वजह से हुई।
ऐसा नहीं माना जा सकता कि जो कारखाने इस तरह के रसायनों का उपयोग करते हैं, उन्हें इसकी जानकारी नहीं रही होगी कि वे पानी या दूसरे रसायनों के साथ प्रतिक्रिया करके किस तरह घातक साबित हो सकते हैं। मगर हकीकत यह है कि छोटे और मझोले कारखाने खर्च में बचत की मंशा से जलशोधन संयंत्र लगाने जैसी अनिवार्य शर्त के पालन से बचने का प्रयास करते हैं।
इसमें उनकी मदद प्रदूषण नियंत्रण से जुड़े अमले करते हैं। कारखानों से निकलने वाला रासायनिक जल-मल बिना शोधन के बहाना दंडनीय अपराध है। मगर कारखाना मालिक चोरी-छिपे रात को इसे खुली नालियों में बहा दिया करते हैं। यह कहानी हर औद्योगिक क्षेत्र की है। वैसे हमारे देश में बहुत कम कारखाने ऐसे हैं, जो जलशोधन संयंत्र लगाते हैं।
चूंकि यह संयंत्र लगाना खासा खर्चीला काम है, इसलिए छोटे और मझोले कारखाना मालिक इसका खर्च उठाने से बचने का रास्ता तलाश करते रहते हैं। इसमें उनकी मदद खुद प्रदूषण नियंत्रण करने वाला महकमा करता देखा जाता है। जब भी ऐसा कोई बड़ा हादसा होता या बड़ी आबादी की सेहत पर दुष्प्रभाव नजर आता है, तो प्रशासन कुछ समय के लिए हरकत में आता है और कुछ कारखाना मालिकों और कर्मचारियों-अधिकारियों के खिलाफ अनुशासनात्मक कार्रवाई करने की खानापूर्ति की जाती है। फिर वही स्थिति कायम हो जाती है।
कारखानों में लापरवाही या जानबूझ कर की जाने वाली नियम-कायदों की अनदेखी की वजह से होने वाले हादसों पर इसलिए भी लगाम नहीं लग पाती कि हमारे यहां औद्योगिक हादसों के मामले में मुआवजे वगैरह को लेकर कानून सख्त नहीं हैं। ऐसे हादसों का शिकार होने वाले प्राय: गरीब तबके के लोग होते हैं, इसलिए प्राथमिक तौर पर तो प्रशासन खुद समझा-बुझा कर पीड़ित पक्ष को समझौता करने को राजी कर लेता है।
अगर कुछ मामले अदालतों तक पहुंचते भी हैं तो मुआवजा इतना कम मिलता है कि कारखाना मालिकों को उसकी बहुत परवाह नहीं होती। दूसरे देशों में ऐसे हादसों में मुआवजे की रकम इतनी बड़ी रखी गई है कि कारखाना मालिक किसी तरह की लापरवाही करने की सोच भी नहीं सकते। जब तक सरकारें इस दिशा में दृढ़ इच्छाशक्ति नहीं दिखाएंगी, ऐसे हादसों पर लगाम लगना कठिन बना रहेगा।