महिला पहलवानों के यौन उत्पीड़न मामले में एक बार फिर इंसाफ की उम्मीद जगी है। दिल्ली की एक अदालत ने कुश्ती महासंघ के पूर्व अध्यक्ष बृजभूषण शरण सिंह के खिलाफ पर्याप्त सबूतों के आधार पर आरोप तय कर दिए हैं। छह में से पांच महिला पहलवानों के आरोपों को सही माना है। इस तरह अब बृजभूषण शरण सिंह की मुश्किलें बढ़ गई हैं। पिछले वर्ष जनवरी में महिला पहलवान बृजभूषण शरण पर यौन उत्पीड़न का आरोप लगाते हुए धरने पर बैठ गई थीं। मगर तब पुलिस मामले को टालती रही। जब सर्वोच्च न्यायालय ने फटकार लगाई, तब मुकदमा दर्ज किया गया।
फिर भी जांच को लेकर टालमटोल का रवैया बना रहा। अदालत ने फिर फटकार लगाई, तो जांच शुरू हुई। पिछले वर्ष जून में दिल्ली पुलिस ने पंद्रह सौ पन्नों का आरोपपत्र दायर किया। उसमें महिला पहलवानों की तरफ से लगाए गए ज्यादातर आरोप सही पाए गए थे। पुलिस ने बृजभूषण शरण के खिलाफ यौन उत्पीड़न, पीछा करने, धमकाने और महिला गरिमा को आहत करने के लिए मुकदमा चलाने की सिफारिश की थी। हालांकि उस पर पहली ही सुनवाई में अदालत ने मामले को एमपी-एमएलए अदालत में भेज दिया था।
इस मामले में सरकार की तरफ से ऐसा कोई प्रयास नहीं किया गया, जिससे जाहिर हो कि वह महिला पहलवानों के पक्ष में है। पिछले वर्ष केंद्रीय खेलमंत्री ने महिला पहलवानों को न्याय दिलाने का भरोसा देते हुए एक जांच समिति गठित कर दी थी। मगर वह समिति चुप्पी साध कर बैठ गई। इससे नाराज पहलवान दुबारा धरने पर बैठ गईं। फिर उन्हें तरह-तरह से आंदोलन वापस लेने को विवश किया जाता रहा। जब आंदोलन कुछ उग्र होता दिखा तो पुलिस ने दमन का रास्ता अख्तियार किया और पहलवानों को धरना स्थल से उखाड़ फेंका था। उसके बाद महिला पहलवानों का हौसला जैसे पस्त पड़ गया।
उन्होंने अपने पदक गंगा में बहाने की कोशिश की, फिर उन्हें प्रधानमंत्री निवास के बाहर रख आए। फिर भी बृजभूषण शरण सिंह पर कोई शिकंजा कसता नजर नहीं आया। वे बेखौफ घूमते रहे। विचित्र है कि जिन धाराओं में उनके खिलाफ आरोपपत्र दायर किया गया, उनके तहत अगर कोई सामान्य नागरिक होता, तो उसे जेल की सलाखों के पीछे डाल दिया गया होता। मगर बृजभूषण शरण न केवल बाहर घूमते रहे, बल्कि राजनीतिक बयानबाजी भी करते रहे। आखिरी वक्त तक लोकसभा चुनाव का टिकट हासिल करने की दौड़ में शामिल थे। हालांकि पार्टी ने उनकी जगह उनके बेटे को प्रत्याशी बना दिया।
जिन महिला खिलाड़ियों ने बृजभूषण के खिलाफ आवाज उठाई थी, वे अंतरराष्ट्रीय पदक विजेता हैं। वे अच्छी तरह जानती थीं कि उनके इस कदम का उन्हें क्या नुकसान उठाना पड़ सकता है। उन्होंने कुश्ती महासंघ को साफ-सुथरा बनाने के लिए एक तरह से अपना पूरा खेल जीवन दांव पर लगा दिया। मगर उन्हें इंसाफ दिलाने के बजाय सारा सरकारी तंत्र आरोपी के पक्ष में खड़ा नजर आया। जांच में जानबूझ कर देर की गई। अब अदालत के ताजा रुख से फिर उम्मीद बनी है कि इंसाफ हो सकता है। जब यौन उत्पीड़न के खिलाफ ऐसे नामचीन खिलाड़ियों की गुहार पर सुनवाई की प्रक्रिया में इतनी देर लग सकती है, जिनके साथ पूरे देश की भावना जुड़ी हुई है, तो सामान्य महिलाओं की दबंग लोगों के खिलाफ शिकायतों का निपटारा भला कहां तक और किस रूप में हो पाता होगा, समझना मुश्किल नहीं है।
