जलवायु संकट का समाधान निकालने के लिए वैश्विक स्तर पर जो भी प्रयास हो रहे हैं, उनमें भारत ने बढ़-चढ़ कर अपनी भूमिका निभाई है। मगर इस क्रम में कई बार बिगड़ते जलवायु का हवाला देकर ऐसे कायदे समान रूप से सभी देशों के लिए जरूरी बनाने की कोशिश की जाती है, जिन्हें प्रथम दृष्टया तो कारगर कहा जा सकता है, मगर दूसरे स्तर पर वे कुछ देशों के लिए मुश्किल या फिर नुकसानदेह भी साबित हो सकते हैं। दुबई में सीओपी28 के जारी सम्मेलन में जलवायु संकट के सवाल पर जो चिंताएं जाहिर की गईं, समस्या के हल के लिए जो लक्ष्य निर्धारित किए गए, भारत ने अपनी सीमा में उन सबसे सहमति जताई है।
कार्बन उत्सर्जन और अंतरराष्ट्रीय स्तर पर नियम-कायदे
साथ ही, कार्बन उत्सर्जन को कम करने के क्षेत्र में भारत ने जितनी गंभीरता से काम किया है, उसका भी उल्लेख किया गया। भारत को इस बात की भी चिंता करनी है कि अंतरराष्ट्रीय स्तर पर जो नियम-कायदे तय किए जाते हैं, उन पर अन्य देश भले सहमत हों, लेकिन कोई खास नियम या बिंदु यहां के संदर्भ में कितने उपयुक्त हैं या फिर कहीं उससे देश के सामने कोई नई समस्या तो नहीं खड़ी हो जाएगी!
‘कूलिंग उपकरणों’ के लिए ग्रीनहाउस गैसों के उपयोग पर अंकुश की शर्त नामंजूर
यही वजह है कि भारत ने जलवायु और स्वास्थ्य को लेकर तैयार किए गए सीओपी28 घोषणापत्र पर हस्ताक्षर करने से परहेज किया। खबर के मुताबिक, घोषणापत्र के दस्तावेज में स्वास्थ्य देखभाल के बुनियादी ढांचे के भीतर शीतलन या ‘कूलिंग उपकरणों’ के लिए ग्रीनहाउस गैसों के उपयोग पर अंकुश लगाने की शर्त थी। दरअसल, कम समय में देश के मौजूदा स्वास्थ्य सेवा बुनियादी ढांचे के मद्देनजर ग्रीनहाउस गैसों के उपयोग को सीमित करने का लक्ष्य हासिल करना भारत के लिहाज से व्यावहारिक नहीं था।
अंतरराष्ट्रीय सम्मेलनों में हल के उपायों पर जोर देने के बावजूद समस्या बढ़ रही
घोषणापत्र में ग्रीनहाउस गैस उत्सर्जन में गहन, तीव्र और निरंतर कटौती से स्वास्थ्य के लिए लाभ प्राप्त करने के मकसद से जलवायु कार्रवाई का आह्वान किया गया है। इसमें उचित बदलाव, कम वायु प्रदूषण, सक्रिय गतिशीलता और स्वस्थ पोषण शामिल है। यह ध्यान रखने की जरूरत है कि बीते कई दशकों में जलवायु संकट पर जताई जाने वाली चिंता के समांतर तमाम अंतरराष्ट्रीय सम्मेलनों में हल के उपायों पर जोर देने के बावजूद यह समस्या लगातार गहराती गई है। इन हालात के लिए ग्रीनहाउस गैसों या कार्बन उत्सर्जन जैसे कारणों और उसमें विकसित देशों की भूमिका बिल्कुल स्पष्ट रही है।
जहां तक भारत का सवाल है, कार्बन उत्सर्जन के मामले में इसने अपेक्षा से ज्यादा तेज रफ्तार से सुधार किया और समय से पहले ही इसमें काफी कमी लाने में कामयाब रहा। दूसरी ओर यह भी हकीकत है कि भारत जैसे कई देशों में अब भी स्वास्थ्य और कुछ अन्य क्षेत्रों में शीतलन की प्रक्रिया एक अनिवार्यता है और इसीलिए घोषणापत्र के इस बिंदु का पूरी तरह अनुपालन करना भारत के लिए मुश्किल है।
यों भी, भारत में फिलहाल स्वास्थ्य मामले में बुनियादी सेवाओं की जो तस्वीर है, उसमें अगर शीतलन के लिए ग्रीनहाउस गैस में एक सीमा से ज्यादा कटौती की जाती है, तो उससे चिकित्सा सेवा के क्षेत्र की जरूरतों को पूरा करने में बाधा आ सकती है। भारत में आज भी दूरदराज के कई इलाकों में पर्याप्त स्वास्थ्य सेवाएं नहीं हैं। वहां तक आपात सेवाएं या फिर जीवनरक्षक दवाओं की सुरक्षित पहुंच सुनिश्चित करने के लिए शीतलन एक अनिवार्य पहलू है। इसलिए जलवायु संकट के मसले पर अपने ईमानदार सरोकार के समांतर कुछ बिंदुओं पर भारत की चिंता को समझा जा सकता है।
