विचारों की अभिव्यक्ति में भी एक मर्यादा होती है। बात जब जनप्रतिनिधियों की हो तो संवेदनशीलता और भी गहरी हो जाती है। जनप्रतिनिधि समाज का नेतृत्व करते हैं, इसलिए उनसे सुव्यवहार, शिष्टाचार और संयमित आचरण की उम्मीद की जाती है। उनके भाषणों को भी इन तत्त्वों के समावेश के नजरिए से देखा जाता है। भारतीय लोकतंत्र में हर किसी को अपने विचार व्यक्त करने की आजादी है, लेकिन जब सरकार में मंत्री पद पर आसीन जनप्रतिनिधि अपने वक्तव्य में देश की आजादी पर ही सवाल खड़े करे, तो उसे क्या कहा जाएगा।

मध्य प्रदेश के मंत्री कैलाश विजयवर्गीय के उस बयान से एक नया विवाद खड़ा हो गया है कि 15 अगस्त 1947 को देश को मिली आजादी ‘कटी-फटी’ थी। सवाल है कि लंबे संघर्षों और तमाम कुर्बानियों के बाद हासिल आजादी पर इस तरह की आपत्तिजनक टिप्पणी करके वे क्या दर्शाना चाहते हैं? एक जिम्मेदार पद पर बैठे किसी जनप्रतिनिधि को क्या ऐसी टिप्पणी शोभा देती है? मर्यादा के विषय पर बड़े-बड़े भाषण देने वाले मंत्री ही अगर इस शब्द का सही अर्थ नहीं समझ पाएं, तो आम नागरिक से क्या उम्मीद की जा सकती है?

विवादित टिप्पणियों से रहा है पुराना नाता

कैलाश विजयवर्गीय का इस तरह का यह कोई पहला बयान नहीं है। इससे पहले भी उनकी कई टिप्पणियों पर विवाद हो चुका है। दरअसल, विजयवर्गीय अखंड भारत की बात कर रहे थे, लेकिन उन्होंने जिस तरह से इसे देश की आजादी से जोड़ा, उस पर सवाल खड़े होना स्वाभाविक है। वैसे विवादित बयान देने वाले नेताओं की फेहरिस्त काफी लंबी है। कुछ नेता अपनी टिप्पणियों पर विवाद बढ़ने के बाद खेद जाहिर करते हैं, तो कुछ यह कहकर इतिश्री कर लते हैं कि उनके बयान को तोड़-मरोड़ कर पेश किया गया।

निर्वाचन आयोग के साख पर सवाल, ईवीएम के जरिए मतदान और मतों की गिनती को लेकर संदेह

ऐसा लगता है कि नेताओं ने विवादित और अमर्यादित बयानों की एक शृंखला शुरू कर रखी है, जो बदस्तूर जारी है। मगर, जनप्रतिनिधि, खासकर सरकार में मंत्री इस बात को क्यों भूल जाते हैं कि वे देश और राज्य की नीति निर्माण व्यवस्था का हिस्सा हैं। अगर उनका दृष्टिकोण इस तरह का होगा, तो जाहिर है कि व्यवस्था पर भी इसका असर पड़ेगा। ऐसे में आमजन की भी यह जिम्मेदारी बनती है कि वे अपना प्रतिनिधि चुनने से पहले उन्हें हर कसौटी पर जरूर परख लें।