उपभोक्ताओं की जेब से खुदरा या खुले पैसे गायब हो रहे हैं। बाजार प्रतिदिन बड़ी सफाई से करोड़ों ग्राहकों का खुदरा खा जाता है। कोई दुकानदार बचे हुए एक रुपए लौटा दे, तो यह सुखद लगता है। मगर बहुत सारे दुकानदार ऐसा नहीं करते या इसके बदले में कोई गैरजरूरी चीज पकड़ा देते हैं। सवाल चंद सिक्के या एक-दो रुपए का नहीं है। देश में रोजाना करोड़ों रुपए का लेनदेन होता है, मगर खरीदारी के बाद अक्सर खुदरा पैसे नहीं लौटाए जाते। कई बार तो ग्राहक खुद ही एक-दो रुपए छोड़ देता है। सवाल है कि क्या हमारी अर्थव्यवस्था में इन पैसों का कोई हिसाब है!

गौरतलब है कि चेन्नई के एक ग्राहक की ओर से डाकघर से सिर्फ पचास पैसे नहीं लौटाने की शिकायत जब उपभोक्ता विवाद निवारण आयोग के पास पहुंची तो सुनवाई के बाद भारतीय डाक विभाग को पंद्रह हजार रुपए मुआवजा देना पड़ा। दरअसल, एक डाकघर में पंजीकृत पत्र के लिए तीस रुपए का भुगतान किया गया था, लेकिन रसीद में उनतीस रुपए पचास पैसे दर्शाए गए थे। कायदे से डाकघर को वे पचास पैसे लौटा देना चाहिए था, लेकिन तकनीकी कारणों से आनलाइन भुगतान लेने में दिक्कत आदि कारण बता कर ऐसा नहीं किया गया।

जागरूक उपभोक्ता हासिल किया अपना हक

इस मामले को अपवाद माना जा सकता है, जिसमें एक जागरूक उपभोक्ता ने अपना हक हासिल किया। मगर यह छिपा नहीं है कि हर रोज इस तरह कितने ही लोगों को एक या दो रुपए यों ही छोड़ देने पड़ते हैं। कुछ वस्तुओं या सेवाओं की कीमत भी इस तरह रखी जाती है कि उसमें उपभोक्ता को अनचाहे एक रुपए छोड़ना पड़ता है या दुकानदार खुदरा पैसे नहीं होने का बहाना करके नहीं लौटाता। निश्चित रूप से इन पैसों का हिसाब न रखे जाने से राजस्व का भी नुकसान है। आनलाइन लेनदेन की सुविधा में इस समस्या के हल की एक उम्मीद बंधती है।

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आज बड़ी संख्या में लोग इसका इस्तेमाल कर रहे हैं। मगर जो लोग फिलहाल डिजिटल भुगतान नहीं कर पा रहे हैं, उनकी जेब से रोज कुछ पैसे अनचाहे ही चले जाते हैं। सरकार को इस मसले का कोई व्यावहारिक हल निकालने की जरूरत है, जिसमें नाहक ही लोगों की मेहनत के कुछ पैसों का कोई मोल नहीं रहता और देश की अर्थव्यवस्था को भी नुकसान होता है।