कर्नाटक के दो कद्दावर नेताओं सिद्धरमैया और डीके शिवकुमार ने मुख्यमंत्री पद की दावेदारी पेश की थी। कर्नाटक विधानसभा चुनाव जिताने में दोनों की अहम भूमिका मानी जा रही है। ऐसे में स्वाभाविक ही पार्टी आलाकमान के सामने मुश्किल थी कि वह दोनों में से किसे मुख्यमंत्री पद की जिम्मेदारी सौंपे। जिन दलों में कई कद्दावर नेता होते हैं, वहां ऐसी दुविधा की स्थिति पैदा होती ही है। अगर उनमें संतुलन न साधा जाए, तो सरकार के कामकाज में अड़चनें बनी रहती हैं और फिर अगले चुनावों का गणित भी बिगड़ता है।
सिद्धरमैया अनुभवी नेता हैं, इससे पहले पांच साल तक मुख्यमंत्री रह चुके हैं। उनका कार्यकाल संतोषजनक रहा है। फिर कर्नाटक में उनका बड़ा जनाधार है। इस चुनाव में भी कांग्रेस अगर अल्पसंख्यक, अन्य पिछड़ी जातियों और दलितों को अपने पक्ष में जोड़ सकी, तो उसके पीछे सिद्धरमैया का प्रभाव ही काम आया। आम चुनाव नजदीक आ रहे हैं, ऐसे में सिद्धरमैया को नाराज करना कांग्रेस के लिए परेशानी मोल लेना साबित हो सकता था।
फिर चुनाव घोषणापत्र में कांग्रेस ने जो पांच बड़े वादे किए हैं, उन्हें मंत्रिमंडल की पहली ही बैठक में पूरा करने का संकल्प है। इसके लिए दृढ़ राजनीतिक नेतृत्व और कुशल आर्थिक संयोजन बहुत जरूरी है। इस मामले में सिद्धरमैया ही कारगर साबित हो सकते हैं। आर्थिक मामलों में सिद्धरमैया के गणित का लोहा विपक्षी भी मानते रहे हैं।
उनके बरक्स डीके शिवकुमार पार्टी के समर्पित कार्यकर्ता हैं, उनकी निष्ठा और लगन में कोई कमी नहीं। इस चुनाव में उनकी मेहनत नतीजों में भी परिवर्तित हुई। मगर सबसे बड़ी अड़चन उनके साथ यह है कि उन पर कर चोरी और वित्तीय अनियमितताओं के गंभीर आरोप हैं, जिसके चलते उन्हें जेल भी जाना पड़ा था। अगर कांग्रेस उन्हें मुख्यमंत्री पद पर बिठा देती और आयकर विभाग और प्रवर्तन निदेशालय सक्रिय होकर उन्हें फिर गिरफ्तार कर ले जाते, तो पार्टी के लिए नई मुसीबत खड़ी हो जाती।
इसलिए चुनाव नतीजे आने के तुरंत बाद से ही पार्टी में उन्हें लेकर हिचक साफ दिखाई दे रही थी, पर डीके शिवकुमार अपनी दावेदारी पेश करने और दबाव बनाने का प्रयास करते रहे। मगर पार्टी ने उचित ही व्यावहारिक पहलुओं पर ध्यान देते हुए उन्हें उप-मुख्यमंत्री का पद दिया। इससे उनके सम्मान में कहीं से कोई कमी नहीं आने पाई है।
कांग्रेस के लिए यह कोई पहला मौका नहीं था, जब दो बड़े नेता मुख्यमंत्री पद की दौड़ में शामिल थे और उनके बीच उसे संतुलन बिठाना था। छत्तीसगढ़ में भी यही संकट खड़ा हो गया था, तब आधे-आधे कार्यकाल के लिए भूपेश बघेल और टीएस सिंह देव के बीच फार्मूला तय किया था। राजस्थान में सचिन पायलट को उप-मुख्यमंत्री बनाया गया।
अभी हिमाचल प्रदेश में भी इसी तरह मुख्यमंत्री पद की दौड़ शुरू हुई, तो दो प्रभावशाली नेताओं में मुख्यमंत्री और उप-मुख्यमंत्री पदों का बंटवारा किया गया। हालांकि छत्तीसगढ़ और राजस्थान में दोनों नेताओं के बीच खींचतान देखी जाती रही, पर सरकारें अपना काम करती रहीं। कर्नाटक में ऐसी स्थिति पैदा न होने पाए, इसके लिए केंद्रीय कमान को दोनों नेताओं के बीच तालमेल बनाए रखना होगा। महत्त्वपूर्ण बात यह कि इन दोनों नेताओं को खुद उसी तरह एकजुट होकर काम करना होगा, जिस तरह चुनाव के समय किया। नेतृत्व में तनाव आखिरकार राज्य की जनता के हितों को प्रभावित करता है।