कांग्रेस कार्यसमिति ने पार्टी अध्यक्ष के रूप में सोनिया गांधी का कार्यकाल एक साल के लिए और बढ़ा दिया है। इस तरह पिछले कुछ समय से राहुल गांधी को पार्टी की कमान सौंपे जाने के कयास पर फिलहाल विराम लग गया है। हालांकि कार्यसमिति ने राहुल गांधी के कामकाज की सराहना की और उनके नेतृत्व पर भरोसा जताया है। कांग्रेस के पार्टी नेतृत्व में बदलाव न करने के पीछे कुछ वजहें समझी जा सकती हैं।
दरअसल, कांग्रेस इस वक्त काफी बुरे दौर से गुजर रही है, उसके सामने अपनी खोई हुई साख लौटाने की बड़ी चुनौती है। लोकसभा चुनाव में भारी शिकस्त के कारण कार्यकर्ताओं में निराशा का माहौल है। जिला और प्रखंड स्तर पर उसकी ताकत बिल्कुल क्षीण हो चुकी है। संसद में उसके महज चौवालीस सदस्य हैं, जिसके चलते बड़े मुद्दों को लेकर सरकार पर दबाव बनाने में उसे ज्यादा शक्ति लगानी पड़ रही है। इसलिए कार्यसमिति की बैठक में नए सदस्य बनाने पर जोर दिया गया।
संगठन को मजबूत बनाने पर ध्यान केंद्रित करने का संकल्प लिया गया। दूसरे, राहुल गांधी लगातार कई सालों से पार्टी में युवा नेतृत्व को आगे लाने की वकालत करते रहे हैं, वरिष्ठ नेताओं से तालमेल बिठाए रखने के मामले में वे कमजोर ही साबित हुए हैं। ऐसे में अगर उन्हें पार्टी की कमान सौंपी जाती तो असंतोष की आशंका प्रबल हो सकती थी। इस वक्त कांग्रेस किसी भी तरह के ऐसे बदलाव का जोखिम उठाने के पक्ष में नहीं है, जिससे उसकी स्थिति और कमजोर हो। सोनिया गांधी सभी स्तर के कार्यकर्ताओं-नेताओं से तालमेल कायम करके चलने का प्रयास करती हैं, उन पर पूरी पार्टी को भरोसा है। इसलिए हैरानी की बात नहीं कि आगे भी उनका कार्यकाल बढ़ाने का फैसला किया जाए।
हालांकि मानसून सत्र में विपक्षी दलों को साथ लेकर कांग्रेस व्यापमं घोटाले और भूमि अधिग्रहण संशोधन विधेयक के मुद्दे पर सरकार पर दबाव बनाने में कामयाब रही। भूमि अधिग्रहण संशोधन विधेयक के मामले में सरकार को अपने कदम वापस खींचने पड़े। कांग्रेस इसका श्रेय लूटने की कोशिश कर रही है। पर हकीकत यह है कि उसके लिए अपना जनाधार मजबूत करना फिलहाल आसान नहीं होगा। राहुल गांधी को पार्टी ने नेतृत्व के दूसरे पायदान पर रखा है, उनके कामकाज पर भरोसा भी जता रही है, पर वास्तविकता यह है कि प्रादेशिक स्तर पर उनके नेतृत्व का कोई खास असर नहीं देखा गया।
युवा नेतृत्व पर उन्हें भरोसा जरूर है, पर युवाओं को भी वे अपेक्षित रूप से अपने साथ लेकर नहीं चल पाए हैं। उनमें परिपक्वता की कमी हमेशा उजागर होती रही है। काफी समय से यह सवाल उठता रहा है कि आखिर कांग्रेस नेहरू परिवार से बाहर किसी नेता के नेतृत्व को स्वीकार करने से क्यों हिचकती रही है। उसके पास वरिष्ठ, योग्य और अनुभवी नेताओं की कमी नहीं है, फिर भी अध्यक्ष चुनते समय उसके कार्यकर्ता घूम-फिर कर नेहरू परिवार के किसी सदस्य पर ही क्यों अटक जाते हैं! प्रियंका गांधी को भी पार्टी में अहम जिम्मेदारी सौंपने की बात जब-तब उठती रहती है। कांग्रेस परिवारवाद और व्यक्ति पूजा की अपनी कमजोरियों से पार पाना कब सीखेगी!