जलवायु संकट के प्रतिकूल नतीजे दुनिया भर में दिखने लगे हैं। कहीं समुद्र का जल स्तर बढ़ रहा है, तो कहीं फसलें सूखे की मार झेल रही हैं। हिमनदों के पिघलने और चक्रवाती हवाओं से मनुष्यों के सामने अस्तित्व का संकट गहराने लगा है। दुनियाभर में और खासकर भारत में जिस तरह मौसम का मिजाज बिगड़ा है, यह जलवायु संकट के गंभीर होने का संकेत है। पिछले एक दशक से भी अधिक समय में हिमालयी क्षेत्र में हिमनदों और झीलों का क्षेत्रफल बढ़ना खतरे की घंटी है। क्या हम फिर केदारनाथ जैसी किसी त्रासदी की प्रतीक्षा कर रहे हैं? भूस्खलन और बाढ़ जैसी आपदाओं का खतरा पहले से ही है।
लिहाजा हिमनदों और झीलों के विस्तार को गंभीरता से लेना होगा, क्योंकि इससे न केवल ब्रह्मपुत्र और गंगा जैसी नदियों में पानी की मात्रा पर असर पड़ेगा, बल्कि जैव विविधता के साथ जन-जीवन भी व्यापक रूप से प्रभावित होगा। केंद्रीय जल आयोग की रपट को संज्ञान में लेते हुए राष्ट्रीय हरित पंचाट का केंद्र सरकार को नोटिस सजग करने के लिए ही है। इससे समय रहते हिमनदों को संभालने और नदियों के प्रबंधन की दिशा में कार्य शुरू होगा। हालांकि इसके लिए अंतरराष्ट्रीय और क्षेत्रीय सहयोग की आवश्यकता होगी।
केंद्रीय जल आयोग की रपट ने संभावित प्राकृतिक आपदा की तस्वीर सामने रखी है और इससे आंखें मूंदे नहीं रहा जा सकता। हिमनदों और झीलों के फटने से बाढ़ का अंदेशा तो है ही, और अगर ऐसा हुआ तो निचले इलाके में रहने वाले लाखों लोगों और जैव-विविधता के लिए यह भयावह होगा। भारत में जिन 67 झीलों की पहचान हुई है, उनके क्षेत्रफल में 40 फीसद की वृद्धि चिंता का विषय है। क्योंकि हिमाचल, लद्दाख और उत्तराखंड जैसे राज्यों में यह विस्तार जोखिम बढ़ा सकता है।
इन सभी परिस्थितियों के लिए कहीं न कहीं हम सभी दोषी हैं। हिमनदों का पिघलना कोई एक दिन में नहीं हुआ। कार्बन उत्सर्जन को रोक पाने में नाकामी तो है ही, वहीं जलवायु संकट पर उपेक्षा का भाव भी कम जिम्मेदार नहीं। ऐसे में पूर्व चेतावनी प्रणाली बनाने के साथ आपदा प्रबंधन पर ठोस कार्य करने की भी जरूरत है।