दिल्ली के वजीराबाद इलाके में एक छात्र की हत्या को आए दिन होने वाले अपराधों के तौर पर ही देखा जाएगा। मगर यह घटना एक बार फिर इस बेहद चिंताजनक प्रवृत्ति को रेखांकित करती है कि देश में अब कम उम्र के बच्चों और किशोरों के व्यक्तित्व के विकास की दिशा किस ओर बढ़ चुकी है और अगर इसे तुरंत नहीं थामा गया तो आने वाले वक्त में समाज का स्वरूप कैसा होगा। गौरतलब है कि वजीराबाद में रविवार की शाम को नौवीं के एक छात्र का अपहरण करके उसकी हत्या कर दी गई और उसके बाद अगले दिन उसके परिवार को फोन करके दस लाख रुपए की फिरौती मांगी गई।

पुलिस ने जब मामले की छानबीन शुरू की, तब इसे अंजाम देने के आरोपी तीन किशोर पकड़े गए। हालांकि पिछले कुछ वर्षों से गंभीर अपराधों में भी किशोरों की संलिप्तता के जैसे मामले सामने आ रहे हैं, उसमें यह घटना कोई आश्चर्य नहीं पैदा करती, लेकिन जिस स्तर पर कम उम्र के बच्चों के भीतर आपराधिक प्रवृत्तियों का दायरा फैल रहा है, उसमें यह बेहद चिंता की बात है कि आखिर वे कौन-से कारक हैं जो बच्चों को ऐसी मानसिकता की गिरफ्त में ले रहे हैं।

बच्चों की भीतर नहीं दिख रहा कानून का खौफ

जिस दौर में देश के विकास को लेकर बड़े-बड़े दावे किए जा रहे हैं, उसमें समाज की बुनियाद रखने वाले किशोर उम्र के बच्चों की जिंदगी किस दिशा में बढ़ रही है। गुजरात के अमरेली जिले के एक प्राथमिक विद्यालय में ‘डेयर गेम’ खेलते हुए खुद को चोट पहुंचाने या फिर दस रुपए भुगतान करने की चुनौती देने के बाद पच्चीस बच्चों ने खुद को ब्लेड से घायल कर लिया। इस तरह की सोच का सिरा आगे कहां जाएगा? खुद को नुकसान पहुंचाने या फिर इससे आगे किसी जघन्य अपराध को अंजाम देने के लिए प्रेरित करने वाली प्रवृत्ति के स्रोत आखिर क्या हैं?

आज के दौर में रंग-भेद का लोग हो रहे शिकार, शारदा मुरलीधरन पर की गई अभद्र टिप्पणी इसका जीता जागता प्रमाण

कई बार ऐसा लगता है कि मौजूदा दौर में आम जनजीवन में घुल गए या फिर जरूरतों में शामिल हो चुके तकनीकी संसाधन बच्चों के विवेक पर भी हमला कर रहे हैं और उनके भीतर सही-गलत के बारे में सोचने की प्रक्रिया बाधित हो रही है। वरना क्या कारण है कि जिन आधुनिक तकनीकों को विकास का मानक मान लिया जाता है, वही कई बार एक विचित्र सम्मोहन पैदा कर रहे हैं और कई किशोर उससे प्रभावित होकर अपनी इच्छाओं को पूरा करने के लिए जघन्य अपराध करने से भी नहीं हिचकते। उनके भीतर कानून तक का खौफ नहीं होता।

फिल्म और वेब सीरीज देखकर ज्यादातर हो रही घटनाएं

विडंबना यह है कि जिस उम्र में बच्चों के खेलने-पढ़ने और भविष्य की बुनियाद रचने का दौर होता है, उसमें आज ऐसे किशोरों की संख्या में खासी बढ़ोतरी दर्ज की जा रही है जो अपने सामने की न केवल नकारात्मक, बल्कि आपराधिक प्रवृत्तियों और घटनाओं से भी प्रभावित हो रहे हैं। अंदाजा इससे लगाया जा सकता है कि अपने सामने परोसे जा रहे चकाचौंध के बीच वे कल्पनाएं बुनते हैं और कई बार ऐसे अपराधों को भी अंजाम देते हैं, जो उनके मौजूदा और भावी जीवन को तबाह कर देते हैं।

इलाहाबाद उच्च न्यायालय के फैसले पर सर्वोच्च न्यायालय ने प्रकट किया खेद

कोई वेब सीरीज देखने या वीडियो गेम खेलने के क्रम में बच्चे कब बेलगाम सपनों के संजाल में फंस कर अपराध के दलदल में दाखिल हो जाते हैं, यह पता नहीं चलता। अफसोस की बात यह है कि बच्चों और किशोरों की यह चिंताजनक दशा और दिशा न तो समाज और न ही सरकार की चिंता में शुमार है। यह बेवजह नहीं है कि जिन बच्चों को समाज और देश के बेहतर भविष्य के लिए उम्मीद की किरण माना जाता है, उनमें से कई अक्सर बड़ी समस्या के वाहक बन रहे हैं।