बाल विवाह से संबंधित एक याचिका पर सुनवाई करते हुए सर्वोच्च न्यायालय ने जो कहा, वह वक्त का तकाजा है और इससे संबंधित कानून को लागू करने के रास्ते में आने वाली अड़चनों को दूर करने वाला भी। देश भर में विभिन्न समुदायों के बीच परंपरा या व्यक्तिगत कानूनों की वजह से आज भी बाल विवाह करा दिए जाते हैं। यह समझना मुश्किल नहीं है कि जिन बच्चों की शादी कम उम्र में करा दी जाती है, वे इस मामले में कितनी परिपक्व समझ रखते हैं। इस लिहाज से सर्वोच्च न्यायालय का फैसला अहम है।

अदालत ने कहा कि बाल विवाह रोकथाम अधिनियम को व्यक्तिगत कानूनों के जरिए बाधित नहीं किया जा सकता। हालांकि अदालत ने यह स्वीकार किया कि इस कानून में कुछ खामियां हैं और इसे सफल बनाने के लिए बहु-क्षेत्रीय समन्वय के पक्ष का ध्यान रखा जाएगा। इस संबंध में शीर्ष अदालत की यह टिप्पणी महत्त्वपूर्ण है कि बाल विवाह अपनी पसंद का जीवन साथी चुनने की स्वतंत्र इच्छा का उल्लंघन करता है।

दरअसल, समाज में अब भी कुछ ऐसी रिवायतें जारी हैं, जो न केवल किसी समाज में प्रतिगामी मूल्यों की वाहक हैं, बल्कि उनके जरिए कई बार मानवाधिकारों का भी हनन होता है। बाल विवाह ऐसी ही एक परंपरा है, जो कानून की कसौटी पर तो अनुचित है, मगर व्यवहार में बदस्तूर कायम है। बच्चों का विवाह कराते हुए इस बात का खयाल रखना जरूरी नहीं समझा जाता कि कम आयु के बच्चे अपने विवाह को लेकर कोई परिपक्व फैसला नहीं कर सकते। अभिभावकों के फैसले का विरोध न कर पाने या असहमति न जता पाने की वजह से जो उन पर थोपा जाता है, उसे वे मजबूरन स्वीकार कर लेते हैं।

यही वजह है कि हर वर्ष देश के अलग-अलग हिस्सों में बड़ी तादाद में बाल विवाह कराए जाते हैं और कानून वहां लाचार खड़ा दिखता है। जाहिर है, इस समस्या की परतें और जटिलताओं के मद्देनजर बाल विवाह प्रथा को समाप्त करने के लिए वक्त के मुताबिक कानूनों में जरूरी बदलाव के साथ-साथ लोगों के बीच जागरूकता फैलाने और अलग-अलग समुदाय के हिसाब से रणनीति बनाने जरूरत है।