भवन निर्माण का मतलब उनके लिए महज सुंदर और सुविधाजनक इमारत खड़ी कर देना नहीं था। उसकी परिकल्पना सदा उन्होंने प्रकृति से तादात्म्य बिठाते, कलात्मक परिसर के रूप में की, जहां कुदरत से नाहक छेड़छाड़ न हो, सुविधा के नाम पर परेशानियों की बुनियाद न बने। चार्ल्स कोरिया ने कसम खाई थी कि वे कभी शीशे का महल नहीं बनाएंगे।

वे सिर्फ वास्तुशिल्पी नहीं, कल्पनाशील शहरी नियोजक, प्रखर समाज-कर्मी और सिद्धांतकार थे। खुले आसमान वाले भवन सिरजने के हिमायती थे। ऐसे घर जहां हवा और रोशनी के लिए अलग से ऊर्जा खर्च न करनी पड़े, वे सहज भाव से उपलब्ध हो सकें। उनकी कल्पनाशीलता, सुरुचि और शहरी नियोजन संबंधी कौशल का परिचय नवी मुंबई बसाने के लिए बनी महत्त्वाकांक्षी परियोजना में ही मिल गया था, जब उन्होंने पहली बार इस उपनगर का नक्शा तैयार किया, जहां बीस लाख लोगों को बसाया जाना था।

जहां भी उन्होंने वास्तुशिल्प रचे, वहीं की सहज उपलब्ध वस्तुओं का इस्तेमाल किया; वहां के मौसम, लोगों की रुचियों, जरूरतों आदि का बारीकी से अध्ययन करते हुए ढांचे गढ़े। परंपरा में आधुनिकता के तत्त्व घुलाए-मिलाए जरूर, पर जहां भी भवन परिकल्पित किए, वहां की वास्तु-शैली को महत्त्व दिया। वहीं के आकल्पन उन पर उकेरे। भवन निर्माण की वजह से शहरों में भूजल के गिरते स्तर को लेकर उनकी चिंता लगातार बनी रही। इसीलिए उन्होंने जहां भी इमारतें बनार्इं, वर्षाजल संचय का समुचित प्रबंध किया।

घरों को ठंडा या गरम रखने के लिए, रोशनी आदि के लिए बिजली का कम से कम उपयोग करना पड़े, यह उनके काम का अनिवार्य सिद्धांत था। कम खर्च में गरीबों के लिए किस तरह घर बनाए जा सकें, जिनमें सभी जरूरी सुविधाएं हों, इसका भी नक्शा उन्होंने तैयार किया था। यह अलग बात है कि सरकारों की उदासीनता के चलते उनका यह सपना मूर्त रूप नहीं ले सका।

आज शहरों में बेजा तड़क-भड़क वाली इमारतें खड़ी करने की होड़-सी लगी है। स्थानीयता को नजरअंदाज कर विदेशी कांच, इस्पात, सीमेंट आदि की पूर्वनिर्मित वस्तुओं से उनका शिल्प गढ़ा जाने लगा है। उनमें वातानुकूलन और प्रकाश-व्यवस्था के लिए भारी मात्रा में बिजली खर्च होती है। इससे चार्ल्स कोरिया को क्षोभ होता था। कोरिया के बनाए भवन कहीं अधिक सुरुचिपूर्ण, खुलापन धारे और पर्यावरण के अनुकूल हैं।

वे सिर्फ इमारतें नहीं बनाते थे, उनके जरिए नया विचार भी गढ़ते थे। अमदाबाद का गांधी संग्रहालय हो, भोपाल का भारत भवन या फिर जयपुर का जवाहर कला केंद्र, देश में ऐसी सौ से ज्यादा इमारतें हैं, जो आधुनिक भारतीय वास्तुकला में नए अध्याय जोड़ती हैं। विदेशों में उनकी बनाई इमारतों में बोस्टन का एमआइटी साइंस सेंटर, कनाडा के टोरंटो का इस्माइली सेंटर आदि उनके विलक्षण वास्तुशिल्प की गवाही देते हैं।

जीवन के आखिरी दिनों में वे पानी के पुनर्चक्रण, ऊर्जा पुनर्नवीकरण, ग्रामीण बसाहट और क्षेत्रीय जैव-विविधता को लेकर अध्ययन-अनुसंधान कर रहे थे। आज कितने ऐसे वास्तुकार हैं जो प्रकृति और परंपरा को लेकर इस कदर गहन चिंतन-मनन करते हैं, उनके संरक्षण के लिए संवेदनशील हैं। आज भवन निर्माण महज पैसा कमाने का जरिया हो गया है, इसलिए सौंदर्य का वह पैमाना कहीं नहीं दिखता, जो चार्ल्स कोरिया के काम में मौजूद है।

कोरिया को उनके अवदान के लिए देश-विदेश के अनेक प्रतिष्ठित पुरस्कारों-सम्मानों से अलंकृत किया गया। भारत सरकार ने उन्हें पद्मश्री और पद्म विभूषण से नवाजा था। वे यह कतई पसंद नहीं करते थे कि कोई उनके काम की नकल करे। वे चाहते थे कि उनसे बढ़ कर कोई काम सामने आए। उनके जाने से भवन निर्माण में सुरुचि की परंपरा को गहरी क्षति पहुंची है।

 

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