देश के अलग-अलग हिस्सों में जिस तरह लगातार ट्रेन हादसों की घटनाएं हो रही हैं, उससे ऐसा लगता है मानो दुर्घटनाएं अब आम दिनचर्या का हिस्सा बन रही हैं और इसे लेकर प्रकारांतर से सहज होने की स्थितियां बन रही हैं। विचित्र है कि हर हादसे के सुर्खियों में आने और सवाल उठने के बाद सरकार यह घोषणा करने की औपचारिकता निभाना नहीं भूलती कि घटना की जांच की जाएगी, ऐसे उपाय किए जाएंगे, ताकि भविष्य में ऐसा हादसा न हो। मगर फिर कुछ दिन बाद देश के किसी हिस्से से अन्य बड़ी रेल दुर्घटना की खबर आ जाती है और कभी भी रेल महकमे के मंत्री को जिम्मेदारी लेने की जरूरत नहीं महसूस होती।

गौरतलब है कि उत्तर प्रदेश के गोंडा जिले में गुरुवार को चंडीगढ़ से डिब्रूगढ़ जा रही एक एक्सप्रेस ट्रेन के आठ डिब्बे पटरी से उतर गए, जिनमें से पांच पलट गए। इस घटना में चार लोगों की मौत हो गई और कम से कम बीस अन्य के घायल हो गए। यह हादसा यही बताता है कि रेल यात्रा को सुरक्षित बनाने के सरकार के तमाम दावे महज आश्वासन भर हैं।

ऐसा क्यों है कि एक ओर रेल महकमे को आधुनिक स्वरूप देने, उच्च तकनीकी से लैस करने के दावे किए जा रहे हैं, दूसरी ओर पटरियों पर होने वाले हादसे रुक नहीं रहे हैं। इस घटना के बाद एक बार फिर इसके कारणों को लेकर लंबी पड़ताल चलेगी और आम जनता को शायद ही पता चलेगा कि इसकी क्या वजह थी और इसके लिए किसे जिम्मेदार ठहराया गया, क्या कार्रवाई हुई और इस संदर्भ में सरकार ने क्या ऐसे उपचारात्मक उपाय किए, ताकि भविष्य में ऐसा हादसा फिर न हो।

अफसोस की बात यह है इस तरह की कवायदें सभी हादसों के बाद होती हैं, मगर कुछ समय बाद होने वाले हादसे सरकारी आश्वासनों की हकीकत बताने के लिए काफी होते हैं। ट्रेनों के आपस में टकरा जाने के अलावा हाल के दिनों में पटरियों पर से उतर जाने की घटनाएं जिस रफ्तार से बढ़ी हैं, उससे यह साफ है कि या तो किसी रूप में पटरियों से छेड़छाड़ की आपराधिक घटनाएं हो रही हैं या फिर रखरखाव के पहलू से रेल महकमा पर्याप्त निगरानी और मरम्मत का काम सुनिश्चित करने में नाकाम है।

आए दिन यह बताया जाता है कि रेल दुर्घटनाओं को पूरी तरह रोकने के लिए आधुनिक तकनीकी का सहारा लिया जा रहा है। ‘कवच प्रणाली’ के जरिए ट्रेनों के आपस में टक्कर होने को पूरी तरह रोकने का दावा किया जाता है। मगर कुछ समय के अंतराल पर आमने-सामने या पीछे से ट्रेनों की टक्कर और उसमें लोगों के मारे जाने से कवच प्रणाली की सीमा का पता चलता है कि यह कितनी ट्रेनों को उपलब्ध कराया गया है या जिसमें है, उसमें कितना कारगर है।

ट्रेनों की रफ्तार को और ज्यादा बढ़ाने को एक यात्री सुविधा के रूप में पेश किया जाता है, मगर पटरियों की गुणवत्ता का सवाल प्राथमिक नहीं होता। बुलेट ट्रेन या अन्य तेज रफ्तार ट्रेनों की व्यवस्था के दावे सुर्खियों में होते हैं, वहीं मौजूदा रेल-संचालन को भी यात्रियों के लिए पूरी तरह सुरक्षित नहीं बनाया जा पा रहा। रेल महकमे में कितने पद खाली हैं और उन पर भर्तियों को लेकर क्या योजना है, उस पर विचार करना और इसे हादसों के कारण के रूप में चिह्नित करना एक उपेक्षित मसला है। सवाल है कि पटरियों पर हर वक्त एक जोखिम के साथ दौड़ती ट्रेनों के सफर को किस भरोसे अंतरराष्ट्रीय स्तर का बनाने का दावा किया जा रहा है!