पता नहीं, पश्चिम बंगाल में कानून-व्यवस्था नाम की कोई चीज है भी या नहीं। सत्ता के समर्थक अपने हिसाब से राज्य को चलाने की कोशिश करते देखे जाते हैं। जो कुछ उनके प्रतिकूल नजर आता है, उसके खिलाफ हिंसा पर उतारू हो जाते हैं। राशन घोटाले से जुड़े आरोपों पर छापा डालने गए प्रवर्तन निदेशालय के दल पर हमला इसका ताजा उदाहरण है।

राशन घोटाले से संबंधित एक आरोपी के घर प्रवर्तन निदेशालय के अधिकारी पहुंचे, तो वहां ताला बंद मिला। उन्होंने घर का ताला तोड़ने की कोशिश की। तभी अचानक बड़ी संख्या में ग्रामीण लोग जमा हो गए और जांच दल पर हमला बोल दिया। उनके साथ गए केंद्रीय बल के कर्मियों पर भी हमला किया। उनकी गाड़ियों को तोड़-फोड़ दिया गया। जिस व्यक्ति के घर पर यह सब हुआ, उसे तृणमूल कांग्रेस का कार्यकर्ता और राज्य के खाद्य आपूर्ति मंत्री का करीबी बताया जाता है।

आखिरकार जांच दल को बिना किसी कार्रवाई के वापस लौटना पड़ा। हालांकि पश्चिम बंगाल में यह पहली और अनोखी घटना नहीं है। इससे पहले भी कई बार जांचों में बाधा डालने, जांच दल को रोकने के प्रयास हुए हैं। करीब पांच वर्ष पहले सारदा चिटफंड घोटाले में राज्य के तत्कालीन पुलिस आयुक्त से पूछताछ के लिए सीबीआइ के अधिकरी पहुंचे थे, तब राज्य पुलिस ने उन्हें गिरफ्तार कर लिया था। उस जांच के विरोध में तो मुख्यमंत्री खुद रात भर धरने पर बैठी रहीं।

पिछले कुछ वर्षों से विपक्षी दल केंद्र सरकार पर आरोप लगाते रहे हैं कि वह बदले की भावना से उनके खिलाफ जांच एजंसियों का इस्तेमाल कर रही है। इस आधार पर वे जांचों में सहयोग करने से भी बचते रहे हैं। मगर पश्चिम बंगाल में जिस तरह जांच एजंसियों का विरोध किया जा रहा है, वह अभूतपूर्व है। इससे यही जाहिर होता है कि राज्य सरकार को कानून पर भरोसा नहीं है।

वह लाठी के बल पर अपने को सही साबित करने में यकीन करती है। राशन घोटाले में जांच का सिलसिला काफी समय से चल रहा है। आरोप है कि सार्वजनिक वितरण प्रणाली के तहत गरीबों को बांटे जाने वाले राशन का करीब तीस फीसद हिस्सा खुले बाजार में बेच दिया गया और उसका लाभ बिचौलियों ने आपस में बांट लिया। अगर राज्य सरकार और उसके पार्टी समर्थकों को लगता है कि वे बेदाग हैं, तो उन्हें अपने पक्ष में सबूत और तर्क पेश करने चाहिए। इस तरह लाठी-डंडे के जोर पर वे कब तक हकीकत पर पर्दा डालने में कामयाब हो सकते हैं।

छिपी बात नहीं है कि ममता शासन में तृणमूल कांग्रेस के कार्यकर्ता कानून अपने हाथ में लेने से तनिक नहीं हिचकते। हर चीज का फैसला वे अपने ढंग से करना-कराना चाहते और इसके लिए खुलेआम हिंसा का सहारा लेते हैं। इसकी वजहें भी जाहिर हैं। खुद ममता बनर्जी अपने समर्थकों-कार्यकर्ताओं के उपद्रव, उद्दंडता और हिंसक गतिविधियों का बचाव करने उतर आती हैं। वे अपने कार्यकर्ता को छुड़ाने एक बार थाने तक में पहुंच गई थीं।

स्वाभाविक ही इससे उनके कार्यकर्ताओं का मनोबल बढ़ा है और वे सरकारी कल्याणकारी योजनाओं को भी अपने ढंग से संचालित करते देखे जाते हैं। अगर कोई व्यक्ति अंगुली उठाता है, तो उसकी जान पर बन आती है। चुनावी हिंसा और प्रतिहिंसा तो वहां लगातार चलती रहती है। मगर सवाल है कि आखिर कोई सरकार अपने लोगों को कब तक बाहुबल के जोर पर बचा सकती है। इसमें संवैधानिक संस्थाओं का मोल ही क्या रह जाता है।