अक्सर पुलिस को जिन मामलों में संयम और विवेक से काम लेना चाहिए, उन पर डंडे के जोर से काबू पाने की कोशिश करती है। असम के तिनसुकिया में गुस्साई भीड़ को रोकने के लिए गोली चलाने से हाइटेंशन तार टूट कर गिरने और उसमें ग्यारह लोगों के मारे जाने की घटना इसका ताजा उदाहरण है। पुलिस का कहना है कि गुस्साई भीड़ ने थाने पर हमला कर दिया। इसलिए उसे रोकने के लिए पुलिस में गोली दागी, जो ऊपर हाइटेंशन तार से टकराई और वह टूट कर नीचे गिर गया, जिसकी चपेट में आने से लोगों की मौत हो गई। दरअसल, उस इलाके में कुछ अज्ञात व्यक्तियों ने तीन लोगों का अपहरण कर लिया था, अगले दिन उनमें से दो लोगों का शव बरामद हुआ। इस मामले की छानबीन में पुलिस ने कुछ लोगों को गिरफ्तार कर लिया था। स्थानीय लोगों का कहना था कि पुलिस गिरफ्तार लोगों को उन्हें सौंप दे। इसके चलते पुलिस और स्थानीय लोगों के बीच तनातनी बढ़ गई थी। यह ऐसा मामला नहीं था, जिस पर स्थानीय लोगों के साथ ठीक से बातचीत की गई होती तो उन्हें समझाना मुश्किल था। मगर पुलिस को शायद इस बात का प्रशिक्षण नहीं है कि नाजुक मसलों को हल करने के लिए किस तरह की संवेदनशीलता और स्थानीय लोगों के साथ मानवीय व्यवहार की जरूरत होती है। पुलिस हमेशा भय का माहौल बना कर कानून का पालन कराने की कोशिश करती है। यही तिनसुकिया की घटना में भी हुआ।

कायदे से पुलिस को डंडा या फिर गोली चलाने का निर्णय तब लेना चाहिए, जब स्थिति बेकाबू हो जाए। उसमें भी पहले भीड़ पर काबू पाने के लिए पानी की बौछार, आंसू गैस, रबड़ की गोली चलाने आदि का प्रावधान है। मगर हैरानी की बात है असम पुलिस ने हवा में गोली दागने का फैसला किया। ऐसा भी नहीं माना जा सकता कि उसे ऊपर से गुजर रहे हाइटेंशन तार के बारे में जानकारी नहीं थी। जब भी हवा में गोली दागने का फैसला किया जाता है तो इस बात का ध्यान रखा जाता है कि गोली लगने से कोई नुकसान तो नहीं होगा। मगर जिसने गोली चलाई, उसने ऊपर देखना जरूरी नहीं समझा। वह तार को बचा कर भी गोली दाग सकता था। मगर चूंकि पुलिस को अपनी वर्दी और डंडे का रोब जमाने की इतनी जल्दी होती है कि कई बार वह विवेक से काम लेना जरूरी नहीं समझती।

असम के जनजातीय इलाकों में वैसे भी अक्सर प्रशासन का दोस्ताना और सहयोग का रुख न होने के कारण नाराजगी का भाव रहता है। वहां लंबे समय से पुलिस के कामकाज के तरीके में बदलाव की जरूरत रेखांकित की जाती रही है, मगर इस दिशा में कोई उल्लेखनीय बदलाव नहीं आ पाया है। पुलिस ने अगर स्थानीय लोगों को भरोसे में लेकर बातचीत की पहल की होती, तो शायद उसे गोली चलाने की जरूरत ही न पड़ती। यह पहली घटना नहीं है, जब पुलिस के विवेक से काम न लेने की वजह से लोगों की जान गई। अनेक मौकों पर पुलिस के लाठी चलाने, बेकाबू भीड़ पर गोली चलाने की वजह से लोगों की मौत हो चुकी है। इसलिए पुलिस सुधार संबंधी सिफारिशों में सबसे पहले उसके कामकाज के तरीके को मानवीय बनाने पर जोर दिया जाता रहा है, पर इस दिशा में कोई सकारात्मक नतीजा नहीं आ पाया है।