सरकारी बैंकों के डूबे हुए कर्ज या गैर-निष्पादित आस्तियों (एनपीए) का चार लाख करोड़ के पार चले जाना देश की अर्थव्यवस्था के लिए खतरे की घंटी ही कहा जाएगा। यह खतरा इस तथ्य की रोशनी में और भयावह हो जाता है कि डूबे हुए कर्ज की यह रकम इन बैंकों के कुल बाजार मूल्य से डेढ़ गुना ज्यादा हो गई है।

अगर इसमें सरकारी बैंकों के ऐसे कर्ज भी शामिल कर लिए जाएं जिन्हें भविष्य में एनपीए घोषित किया जा सकता है तो डूबने वाले कर्ज की यह राशि दोगुनी होकर आठ लाख करोड़ के पार चली जाएगी। कर्जदाता के तौर पर अपनी कुल हैसियत से ज्यादा ऋण मंजूर करना और उसे डूबत खाते में जाने देना हमारी बैंकिंग प्रणाली की गंभीर खामियों की ओर इशारा करता है।

इन खामियों को समय रहते दूर नहीं किया गया तो कर्जदारों के साथ ही खुद बैंकों के भी दिवालिया होने और इनकी समूची वित्तीय प्रणाली के चरमरा जाने की आशंका से इनकार नहीं किया जा सकता। रिजर्व बैंक के मुताबिक जब किसी कर्ज परनब्बे दिन से अधिक तक ब्याज की प्राप्ति नहीं होती तो उसे एनपीए की श्रेणी में डाल दिया जाता है।

सरकारी बैंकों के एनपीए में भारी बढ़ोतरी उनकी कार्यप्रणाली को सवालों के घेर में लाती है। रिजर्व बैंक ने बढ़ते एनपीए के मद््देनजर बैंकों को अगले साल मार्च तक अपने बही-खाते दुरुस्त कर लेने का आदेश दिया है। इससे बैंकों के खातों में तो कुछ पारदर्शिता आ जाएगी मगर उन सुराखों-सुरंगों की शिनाख्त भी जरूरी है जिनसे निकल कर कर्जदार की गर्दन और रकम बैंकों की पकड़ से दूर चली जाती है।

एनपीए को बढ़ने से रोकने की कोशिशों का नतीजा अब तक ‘मर्ज बढ़ता गया ज्यों-ज्यों दवा की’ जैसा रहा है। यह इसके बावजूद है कि लगभग हर संसद सत्र से लेकर मौद्रिक समीक्षाओं में एनपीए पर चिंता जताई जाती रही है। अगर चार लाख करोड़ की एनपीए खाते की यह रकम बैंकों कोमिल जाए तो देश की बदहाल अर्थव्यवस्था के लिए संजीवनी का काम कर सकती है। लेकिन तमाम बड़ी कंपनियों, उद्योगपतियों और व्यापारिक प्रतिष्ठानों के पास इसे लौटाने के नाम पर मंदी की मार, कारोबार में घाटे से लेकर परियोजना ठप हो जाने आदि बहानों की लंबी फेहरिस्त रहती है।

हैरत की बात है कि जिन कंपनियों ने कर्ज नहीं चुकाया है वे सरकारी बैंकों से दो से लेकर नौ बार तक फिर से कर्ज लेने में सफल हो गई हैं। ठोकर खाकर भी नहीं चेतने के ऐसे रवैये के रहते भला एनपीए कैसे कम हो पाएगा? अपने सियासी फायदे के लिए सत्तारूढ़ दल कर्जमाफी या प्रायोजित योजनाओं में बैंकों की रकम झोंक ते रहे हैं। बैंकों के खाते में भी ऋण मंजूरी में पात्रता के मापदंडों की अनदेखी, कर्जदार कंपनियों की परियोजनाओं पर सतत निगरानी न करने और बकाएदारों से वसूली में अंतहीन ढिलाई जैसी अनेक लापरवाहियां दर्ज हैं।

सरकारी बैंक छोटे-छोटे कर्ज मंजूर करने और इनकी वसूली में तो बेरहम सूदखोर बन जाते हैं लेकिन कॉरपोरेट घरानों और बड़ी कंपनियों को सैकड़ों करोड़ रुपए का कर्ज खैरात की मानिंद बांट कर उसकी वसूली से आंख फेरे रहते हैं। ऋण वसूली के लिए देश में गिरफ्तारी से लेकर कुर्की-जब्ती तक अनेक प्रावधान हैं लेकिन बड़े बकाएदार उन्हें ठेंगा दिखाने में कामयाब होते रहे हैं। इस सब के रहते एनपीए से निजात मिलने की उम्मीद कैसे की जा सकती है!