पिछले कई सालों से मुकदमों के बोझ और जजों की कमी का मुद््दा बराबर उठता रहा है। कई मुख्य न्यायाधीशों ने इस तरफ देश और सरकार का ध्यान खींचा था। पर पहले शायद ही कभी लोगों का ध्यान उस तरह आकृष्ट हुआ हो जैसा इस बार हुआ है। इसलिए कि जजों की कमी का रोना रोते हुए प्रधान न्यायाधीश तीरथ सिंह ठाकुर के सचमुच आंसू निकल आए। रविवार को मुख्यमंत्रियों और उच्च न्यायालयों के मुख्य न्यायाधीशों के संयुक्त सम्मेलन को संबोधित करते हुए न्यायमूर्ति ठाकुर ने जजों की संख्या बढ़ाने में सरकारों की निष्क्रियता पर अफसोस जताया।

उन्होंने नम आंखों से कहा कि आप न्यायपालिका पर सारा बोझ नहीं डाल सकते। यह सही है कि इस हद तक भावुक हो जाना किसी समस्या का हल नहीं है। पर न्यायिक तंत्र की क्षमता बढ़ाने के तकाजे के प्रति हमारी सरकारों की संवेदनहीनता समझ के परे है। आखिर वे क्यों इस दारुण सच्चाई की तरफ से आंखें मूंदे हुए हैं कि मुकदमे बरसों-बरस, दशकों तक भी खिंचते रहते हैं। देश में कुल लंबित मामलों की तादाद दो करोड़ अठारह लाख से भी अधिक है।

इनमें से बाईस लाख सत्तावन हजार मामले दस साल से भी ज्यादा पुराने हैं। यह स्थिति हमारे न्यायिक तंत्र के नाकाफी होने की तरफ ही संकेत करती है। हमारे देश में जजों की तादाद आबादी के अनुपात में अपेक्षा से बहुत कम है। ब्रिटेन, अमेरिका आदि की तुलना में कई गुना कम। यों तो कुछ रेलवे स्टेशनों, कुछ हवाई अड््डों और कुछ सेवाओं को विश्वस्तरीय बनाने का दम भरा जाता है, पर जजों की संख्या के मामले में वैश्विक मानक लागू करने की जरूरत नहीं समझी जाती।

नतीजतन, भारत में अदालतों पर मुकदमों का जैसा बोझ है वैसा दुनिया में कहीं और नहीं है। तारीख पर तारीख लगती रहती है और वादी-प्रतिवादी कचहरी के चक्कर काटते रहते हैं। जेलों में बंद लोगों में सत्तर फीसद विचाराधीन कैदी हैं। कुछ की नियति तो त्रासद भी होती है, अपने ऊपर लगे अभियोग की अधिकतम सजा भुगत लेने के बाद भी, मुकदमे का निपटारा न होने के कारण, वे जेल में सड़ने को अभिशप्त रहते हैं।

विधि आयोग ने अपनी लगभग हर रिपोर्ट में जजों की संख्या बढ़ाने की सिफारिश की। विधि मामलों से संबद्ध संसदीय समितियों ने भी यही राय दी। सरकारें दोहराती रहीं कि वे न्यायिक सुधार की राह में वित्तीय अड़चन नहीं आने देंगी। पर जजों की संख्या में इजाफा होना तो दूर, उनके स्वीकृत पदों में भी बहुत-से रिक्त रहते हैं। सर्वोच्च न्यायालय और उच्च न्यायालयों की तरफ से नाम सुझा दिए जाने के बाद भी समय से नियुक्तियां नहीं हो पाती हैं।

जजों की संख्या बढ़ाने का प्रस्ताव आता है और इसके लिए वित्तीय व्यवस्था करने की बात उठती है तो राज्य केंद्र के पाले में गेंद डाल देते हैं और केंद्र राज्यों के पाले में। लिहाजा, न्यायमूर्ति ठाकुर का दर्द समझा जा सकता है। पर मुकदमों का बोझ कम करने के लिए दूसरे सुधार भी जरूरी हैं। मसलन, अगर प्रशासन लोगों की समस्याओं तथा शिकायतों के प्रति अधिक संवेदनशील और पर्याप्त जवाबदेह हो तो अदालत की शरण में जाने के वाकये बहुत कम हो जाएंगे। मुकदमों की एक बड़ी संख्या जमीन के झगड़ों से संबंधित होती है। भूमि संबंधी रिकार्ड दुरुस्त करके सरकारें इस तरह के मामलों को कम कर सकती हैं। प्रशासनिक सुधार के बगैर न्यायिक सुधार का तकाजा पूरा नहीं किया जा सकता।