तमिलनाडु के बिजली और आबकारी मंत्री वी सेंथिल बालाजी की गिरफ्तारी को लेकर एक बार फिर केंद्रीय जांच एजंसियों की कार्यशैली और अधिकार क्षेत्र को लेकर राजनीतिक रस्साकशी शुरू हो गई है। सेंथिल पर आरोप था कि उन्होंने परिवहन विभाग में नौकरियों के बदले नगदी ली थी। प्रवर्तन निदेशालय ने बुधवार को उनसे करीब अठारह घंटे पूछताछ की और जब उन्हें गिरफ्तार किया, तो उनकी तबियत बिगड़ गई।
उन्हें तत्काल अस्पताल में भर्ती कराना पड़ा। तमिलनाडु के सत्ताधारी दल का कहना है कि पूछताछ के दौरान सेंथिल को प्रताड़ित किया गया, जिसकी वजह से उन्हें हृदयाघात हुआ। मुख्यमंत्री स्टालिन ने कहा कि जब सेंथिल जांच में सहयोग के लिए तैयार थे, तो उनसे इतनी लंबी पूछताछ करने की क्या जरूरत थी।
इस घटना के बाद तमिलनाडु सरकार ने पूर्व प्राधिकरण के बिना राज्य के भीतर जांच करने के लिए केंद्रीय जांच ब्यूरो (सीबीआइ) को पूर्व में दी गई सामान्य सहमति को रद्द कर दिया। गौरतलब है कि पश्चिम बंगाल, राजस्थान, केरल, मिजोरम, पंजाब और तेलंगाना पहले ही सीबीआइ जांच के लिए अपनी सहमति वापस ले चुके हैं। इस तरह अब घोटालों की जांचों में राज्य सरकारों के सहयोग को लेकर भी स्वाभाविक ही सवाल उठे हैं।
यह ठीक है कि पिछले कुछ सालों में केंद्रीय जांच एजंसियां कुछ ज्यादा सक्रिय नजर आने लगी हैं। छापों और पूछताछ आदि की कार्रवाइयां बढ़ गई हैं। इसे लेकर विपक्षी दल काफी समय से असहज महसूस कर रहे और आरोप लगा रहे हैं कि ये बदले की भावना से की जा रही कार्रवाइयां हैं, इसलिए कि इनमें दोषसिद्धि न के बराबर हो पाई है और जिन लोगों को गिरफ्तार किया गया है, उन्हें जानबूझ कर परेशान करने की नीयत से जेलों में रखा गया है। सेंथिल का नाम भी उनमें जुड़ गया है।
इस तरह उनकी तबियत खराब होने से उन्हें और सहानुभूति मिली है। विपक्षी दल केंद्रीय एजंसियों की इन कार्रवाइयों के विरुद्ध सर्वोच्च न्यायालय का दरवाजा भी खटखटाया था, मगर उसने साफ कह दिया कि धनशोधन, कर चोरी जैसे मामलों में जांच पर रोक का आदेश भला क्यों दिया जाना चाहिए। ऐसी गतिविधियों के तार राष्ट्रविरोधी और आतंकवादी गतिविधियों से भी जुड़े हो सकते हैं। इस तरह जांच एजंसियों के काम पर अंगुलियां तो नहीं उठाई जा सकतीं।
मगर जांच एजंसियों को इस बिंदु पर विचार करने की अवश्य जरूरत है कि आखिर उस पर केंद्र सरकार के इशारे पर काम करने का आरोप क्यों लग रहा है। क्या उसकी जांच का तरीका वास्तव में वही है, जो होना चाहिए? पूछताछ के दौरान प्रताड़ित किए जाने, डराने-धमकाने के कुछ तथ्य भी सामने आ चुके हैं। क्या पूछताछ करते समय इस बात का ध्यान रखने की जरूरत नहीं समझी जानी चाहिए कि सामने वाले का स्वाथ्य ठीक है या नहीं।
अगर उसके पूछताछ से अभियुक्त को दिल का दौरा पड़ जाए, तो इसे मानवीय कार्रवाई नहीं कहा जा सकता। शायद उसके इसी मनमानेपन की वजह से विपक्षी दलों को उस पर आरोप लगाने का मौका मिला है और अब स्थिति यह है कि वे अपने खिलाफ लगे भ्रष्टाचार के आरोपों को बदले की कार्रवाई बता कर सड़कों पर लोगों के सामने खुद को पाक-साफ साबित करने की कोशिश करते देखे जाने लगे हैं। भ्रष्टाचार पर नकेल कसने के इरादे को इससे चोट पहुंचती है। भ्रष्टाचार हमारे देश में नासूर बन चुका है, इसे मिटाने के लिए अगर पक्षपात पूर्ण तरीका अपनाया जाएगा, तो यह खत्म होने के बजाय बढ़ेगा ही।