हर दौर में हुए युद्ध और उनके नतीजों ने यह साबित किया है कि यह किसी समस्या का समाधान नहीं है, बल्कि खुद ही एक समस्या है। शायद ही कोई सिद्धांत रूप में युद्ध का समर्थन करता दिखे, लेकिन बहाने अलग-अलग भले हों, उनकी आड़ में ज्यादातर देश अपने रक्षा खर्च को ऊंचा रखते हैं, दूसरे देशों की ओर से खतरा बता कर उसमें भारी बढ़ोतरी को जरूरी बताते हैं। उसके बाद शुरू होता है हथियारों की खरीद का सिलसिला, जो देशहित के अन्य बेहद जरूरी मसलों की कीमत पर होता है।
इसमें कोई दोराय नहीं कि देश की रक्षा सबसे जरूरी मसला होना चाहिए, मगर यह हैरानी बात है कि ज्यादा सभ्य, शांत और विकसित होने का दावा करते ऐसे कई देश हैं, जो शांति के लिए ठोस पहलकदमी करने के बजाय युद्ध में इस्तेमाल होने वाले घातक हथियारों के खरीद-फरोख्त में लगे रहते हैं। सवाल है कि अगर बड़े पैमाने पर व्यापक जनसंहार के हथियार खरीदे या निर्मित किए जाते हैं, तो आखिर उनका इस्तेमाल क्या होगा और उसके नतीजे क्या सामने आएंगे।
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दरअसल, हाल के वर्षों में दुनिया कहीं ज्यादा हिंसाग्रस्त और खतरनाक बन चुकी है। एक रपट के मुताबिक, सन 2024 में वैश्विक स्तर पर राज्य आधारित संघर्षों की संख्या 1946 के बाद अपने सबसे उच्च स्तर पर पहुंच गई है। जब भी विश्व के किसी कोने में राज्य आधारित टकराव होते हैं, तब खासतौर पर युद्ध में शामिल देशों के अलावा आसपास के अन्य देश भी अपना रक्षा खर्च बढ़ा देते हैं और पहले से ज्यादा आधुनिक और घातक हथियार खरीदने लगते हैं।
इस क्रम में देशों के बीच होड़ लग जाती है कि सबसे खतरनाक हथियार खरीदने में कौन सबसे आगे रहता है। कई बार युद्ध की महज आशंका को ही आधार बना कर व्यापक जनसंहार के हथियारों की खरीद शुरू हो जाती है। पिछले वर्ष सभी यूरोपीय देशों ने अपने सैन्य बजट बढ़ाए। रूस ने भी ऐसा ही किया। चीन ने पिछले तीस वर्षों में लगातार सैन्य खर्च बढ़ाया है, जबकि अमेरिका को रक्षा पर सबसे ज्यादा खर्च करने वाले देश के तौर पर देखा जाता है।
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करीब एक वर्ष पहले संयुक्त राष्ट्र ने ‘समिट फार द फ्यूचर’ यानी भविष्य के खातिर सम्मेलन का आयोजन किया था, जिसका मकसद शीत युद्ध के बाद बहुपक्षीय प्रणाली के पतन, संघर्ष की बढ़ती स्थितियों और मानवीय आपदाओं से निपटने पर चर्चा करना था। विडंबना यह है कि ऐसे सम्मेलनों में युद्ध पर रोक को लेकर जितनी संजीदगी दिखाई जाती है, उसका अमल में कोई खास असर नहीं दिखता।
मसलन, संयुक्त राष्ट्र में इजराइल और हमास के बीच जारी संघर्ष के औचित्य और उसमें मारे गए पचास हजार से ज्यादा लोगों को लेकर काफी चिंता जताई जा चुकी है, लेकिन इजराइल को कोई फर्क नहीं पड़ा। अंदाजा इससे लगाया जा सकता है कि पिछले कुछ दशकों में हुए शांति समझौते टूट रहे हैं और नए सिरे से संघर्ष के हालात खड़े हो रहे हैं।
मौजूदा दौर में अलग-अलग जगहों पर जारी सशस्त्र संघर्षों में पीड़ित बच्चों की संख्या रेकार्ड स्तर तक पहुंच चुकी है और महिलाओं के अधिकारों पर वैश्विक स्तर पर खतरा मंडरा रहा है। किसी भी युद्ध में सबसे ज्यादा घातक और बहुस्तरीय मार बच्चों और महिलाओं पर ही पड़ती है। सवाल है कि जब बहुत सारे देश विनाशक हथियारों से लैस होंगे, तब युद्ध की आशंकाओं को कहां तक टाला जा सकेगा। क्या आज की सभ्य कही जाने वाली दुनिया हथियारों की होड़ में शामिल होने के बजाय मानवता के हक में शांति का रास्ता नहीं चुन सकती?
