एक आरोप थोड़ा ठंडा पड़ता है कि दूसरा उभर आता है और सियासी सरगर्मी बढ़ जाती है। दिल्ली के उपमुख्यमंत्री मनीष सिसोदिया पर अभी नई आबकारी नीति के जरिए घोटाले का आरोप निपटा भी नहीं है कि अब जासूसी कराने का आरोप लग गया। सीबीआइ ने उपराज्यपाल से उनके खिलाफ प्राथमिकी दर्ज करने की सिफारिश की है।
बताया जा रहा है कि करीब सात साल पहले दिल्ली सरकार ने भ्रष्टाचार पर लगाम लगाने के मकसद से ‘फीडबैक यूनिट’ का गठन किया था, जिसके जरिए उसने राजनीतिक खुफिया जानकारी इकट्ठा की। इस तथ्य का खुलासा होने के बाद भाजपा ने हल्लाबोल अभियान शुरू कर दिया है। बताया जा रहा है कि उपराज्यपाल ने सीबीआइ की सिफारिश मंजूर करते हुए कार्रवाई की सिफारिश राष्ट्रपति के पास भेज दी है।
आम आदमी पार्टी आबकारी नीति को लेकर उठे विवाद के बाद से ही कहती आ रही है कि केंद्र सरकार मनीष सिसोदिया को जेल भेजने के बहाने तलाश रही है। इसके लिए वह जांच एजंसियों का दुरुपयोग कर रही है। मगर पारदर्शिता का दावा करने वाली दिल्ली सरकार को अपने किसी मंत्री या नेता के ऊपर लगे किसी आरोप को बयानबाजी के जरिए निपटाने के बजाय तथ्यों के जरिए साफ करने का प्रयास करना चाहिए।
दिल्ली सरकार ने सतर्कता विभाग को मजबूत बनाने और विभन्न सरकारी दफ्तरों के कामकाज की जानकारी इकट्ठा करने के लिए ‘फीडबैक यूनिट’ का गठन किया था। हालांकि तभी इस विभाग के गठन को उचित नहीं माना गया था। बाद में खुद सतर्कता निदेशालय के एक अधिकारी ने सीबीआइ से इस विभाग की शिकायत की थी। बाद में उपराज्यपाल नजीब जंग ने उसके गठन को नामंजूर कर दिया था।
मगर सीबीआइ का मानना है कि उस एक साल के भीतर दिल्ली सरकार ने उस इकाई के जरिए करीब सात सौ सूचनाएं एकत्र की थी। यह ठीक है कि सरकारों को अपने विभागों में अनियमितताओं पर नजर रखने और उन्हें रोकने के लिए उपाय जुटाने का अधिकार है। मगर इसके लिए पहले से एक स्थापित ढांचा है। सतर्कता विभाग का काम सरकारी दफ्तरों में अनियमितताओं पर नजर रखना ही है। इसलिए दिल्ली सरकार से अपेक्षा की जाती थी कि वह उसी को सुदृढ़ करे, न कि उसके समांतर एक नई व्यवस्था बनाए। इसलिए सतर्कता निदेशालय के अधिकारियों की पीड़ा समझी जा सकती है।
मगर बात यहीं तक होती, तो गनीमत थी। बताया जा रहा है कि सतर्कता विभाग के समांतर गठित ‘फीडबैक यूनिट’ विभिन्न राजनेताओं और अधिकारियों के बारे में जासूसी करती थी। अगर इस बात में सच्चाई है, तो इससे एक बात तो स्पष्ट है कि दिल्ली सरकार इस इकाई की मार्फत अपने खिलाफ गतिविधियों में संलग्न लोगों पर नजर रखने, उनकी बातचीत सुनने की कोशिश कर रही थी।
जासूसी के लिए संवैधानिक नियम-कायदों के मुताबिक एजेंसियों का गठन किया गया है। उनके ढांचे में तोड़-फोड़ या उनके समांतर कोई अलग एजेंसी खड़ी करने का अधिकार नहीं है। फिर, बिना आवश्यक वैधानिक आधार के किसी की जासूसी करना जुर्म है। इसीलिए पेगासस का मामला उजागर हुआ तो केंद्र सरकार भी निशाने पर आ गई थी। हालांकि दिल्ली सरकार के खिलाफ सीबीआइ की ताजा सिफारिश में कितनी सच्चाई है, यह जांच का विषय है। ‘फीडबैक यूनिट’ को वैधानिक मान्यता नहीं मिल पाई थी, फिर भी उसने कैसे, क्यों और क्या जासूसी की, इसकी जांच होनी ही चाहिए।