विमानन कंपनियों के विस्तार और सस्ते हवाई टिकट के वादे के बाद उम्मीद जगी थी कि कम आय वर्ग से आने वाला आम आदमी भी जरूरत पड़ने पर विमान यात्रा कर सकेगा। रेलगाड़ियों में असुविधाओं, टिकट के दाम और उनकी उपलब्धता की स्थिति में उसे एक विकल्प मिलेगा। मगर प्रीमियम किराए का दौर शुरू होते ही और मांग तथा पूर्ति में असंतुलन की आड़ में मनमानी होने लगी। आसमान छूते विमान किराए ने आम आदमी को फिर से जमीन पर उतार दिया।

अब एक बार फिर हवाई सफर ज्यादा समर्थ लोगों की ही पहुंच में सिमटता जा रहा है। प्रमुख त्योहारों के समय, शादियों के मौसम में या छुट्टियों के दौरान कहीं जाने वालों से मुनाफाखोरी होने पर भी नागर विमानन मंत्रालय आंखें मूंदे रहता है। नतीजा यह कि यात्रियों के हितों को नजरअंदाज करते हुए ज्यादातर कंपनियां अंतिम समय में बेहिसाब किराया बढ़ा देती हैं। जबकि कई बार कुछ लोग आपात स्थिति और मजबूरी में भी आखिर में विमान यात्रा का विकल्प चुनते हैं। हैरत है कि सरकार न तो हस्तक्षेप करती है और न ही कोई दिशा-निर्देश जारी करती है।

लोक लेखा समिति की बैठक में आसमान छूते हवाई किराए पर जताई गई गहरी चिंता

जाहिर है, विमानन कंपनियों के इस तरह मुनाफा कमाने पर कोई लगाम नहीं है। कुंभ के दौरान जिस तरह से किराए में भारी उछाल आया है, उस पर गंभीर सवाल उठ रहे हैं। देर से ही सही, सरकार हरकत में आई है। उसके निर्देश के बाद एक विमानन कंपनी ‘इंडिगो’ ने अपने किराए में तीस से पचास फीसद तक कटौती कर दी। इससे यही लगता है कि किराया वसूलने के मामले में विमानन कंपनियां किस तरह की मनमानी करती हैं। हाल ही में लोक लेखा समिति की बैठक में आसमान छूते हवाई किराए पर गहरी चिंता जताई गई थी।

पिछले बड़े हादसों से नहीं लिया गया सबक, धार्मिक आयोजन में भीड़ को लेकर बरती गई लापरवाही

मांग आधारित किराए की व्यवस्था में जब तीन-चार हजार का टिकट अठारह या बीस हजार का हो जाए, तो हवाई सफर सपना ही बनने लगता है। मांग बढ़ने पर या अंतिम समय में टिकट चाहने वालों से मनमाना किराया वसूलने के पीछे आखिर क्या आधार होते हैं? सरकार भी विमान किराए में पारदर्शिता लाने, मनमानी और मुनाफाखोरी पर अंकुश लगाने में विफल रही है। सवाल है कि जिन आधारों पर किराए बढ़ाए जाते हैं, उन्हें तर्कसंगत क्यों नहीं बनाया जाता!