राजनीति में साझेदारी करके चुनाव लड़ना कोई नई बात नहीं है। जब भी विपक्षी दलों को लगता है कि सत्ता पक्ष काफी मजबूत स्थिति में है और उसे हरा पाना कठिन है, तो वे मिल कर चुनाव मैदान में उतरते रहे हैं। कई बार चुनाव के बाद भी गठबंधन बने हैं और साझा न्यूनतम कार्यक्रमों के तहत सरकारें चली हैं।

आगामी लोकसभा चुनाव के लिए भी इसी मकसद से विपक्षी दलों ने परस्पर हाथ मिलाया था कि उन्हें सत्ताधारी भाजपा को अलग-अलग चुनौती देना मुश्किल है। इसके लिए ‘इंडिया गठबंधन’ बना। मगर कुछ दलों के अपने क्षेत्रीय हितों के चलते यह गठबंधन शिथिल-सा पड़ने लगा था। नीतीश कुमार के छिटकने के बाद लगा कि यह खत्म ही हो जाएगा।

मगर अब उत्तर प्रदेश में समाजवादी पार्टी और कांग्रेस के बीच सीटों के बंटवारे को लेकर जिस तरह रजामंदी हुई है, उससे एक बार फिर इस गठबंधन में जान पड़ गई है। हालांकि समाजवादी पार्टी पहले ही एलान कर चुकी थी कि वह कांग्रेस को ग्यारह सीटें देगी, मगर कांग्रेस को और सीटें चाहिए थीं। अब कांग्रेस की पसंदीदा सत्रह सीटों पर सहमति बन गई है। हालांकि उत्तर प्रदेश की अमेठी और रायबरेली सीट पर समाजवादी पार्टी पहले से ही कांग्रेस के समर्थन में अपना उम्मीदवार नहीं उतारती रही है।

महाराष्ट्र में शिवसेना ने भी कहा है कि वह जल्दी ही कांग्रेस के साथ मिल कर सीटों की घोषणा करेगी। इससे इंडिया गठबंधन के बाकी घटक दलों में निश्चित रूप से सकारात्मक संदेश गया है। अभी तक मुश्किलें केवल पश्चिम बंगाल, पंजाब, गुजरात और दिल्ली में अधिक बनी हुई हैं। ममता बनर्जी ने एलान किया है कि वे अकेले चुनाव लड़ेंगी। इसी तरह आम आदमी पार्टी और कांग्रेस के बीच तालमेल नहीं बैठ पा रहा।

आम आदमी पार्टी को लगता रहा है कि दिल्ली, पंजाब और गुजरात में उसका आधार मजबूत है और कांग्रेस के साथ साझेदारी करने से उसे नुकसान उठाना पड़ सकता है। मगर अब वह भी जल्दी सीटों के बंटवारे पर सहमति बना लेना चाहती है। नीतीश कुमार के अलग होने से गठबंधन इसलिए कोई नुकसान महसूस नहीं कर रहा कि बिहार में अभी राजद अधिक प्रभावशाली है और वह इंडिया गठबंधन के साथ है।

राहुल गांधी की भारत जोड़ो न्याय यात्रा में शामिल होकर तेजस्वी यादव ने संकेत भी दे दिया कि कांग्रेस को लेकर उनमें कोई दुराव नहीं है।चूंकि इंडिया गठबंधन को सबसे अधिक मुश्किलें हिंदी प्रदेशों में सीट बंटवारे को लेकर आ रही हैं, समाजवादी पार्टी के साथ हुए समझौते से अन्य प्रदेशों के लिए एक फार्मूला तैयार हो गया है।

जिन सीटों पर जिस पार्टी का जनाधार मजबूत है, उन पर उसी का प्रत्याशी उतारने का फार्मूला लगभग तय है। मध्यप्रदेश, छत्तीसगढ़ और राजस्थान विधानसभा चुनाव नतीजों से कांग्रेस को भी अहसास हो चुका है कि गठबंधन दलों के साथ सीटों की साझेदारी कितनी अहम है। इसलिए अब कोई अड़चन नजर नहीं आ रही। मगर असल दिक्कत है कि इंडिया गठबंधन जिस तरह शुरू में सक्रिय हुआ था, अब वैसा नजर नहीं आता।

चुनाव नजदीक आ गए हैं, मगर न तो गठबंधन ने अभी तक कोई साझा सार्वजनिक सम्मेलन किया है और न सत्ता पक्ष को घेरने के लिए ठीक से मुद्दे तय कर पाया है। भाजपा अभी से आक्रामक रुख अपना चुकी है। ऐसे में भाजपा को शिकस्त देना इंडिया गठबंधन के लिए कितना आसान होगा, दावा नहीं किया जा सकता।