नए कृषि कानूनों को वापस लेने की मांग को लेकर पिछले बारह दिन से चल रहा किसान आंदोलन अभी थमता नहीं लगता। जिस तरह से किसान संगठनों और केंद्र सरकार- दोनों ने हठधर्मिता का रुख अपनाया हुआ है, उससे साफ है कि झुकने को कोई तैयार नहीं है और दोनों ही पक्षों ने इसे नाक का सवाल बनाते हुए आर-पार की लड़ाई करने की ठान ली है।
किसान संगठनों के प्रतिनिधियों और केंद्र सरकार के बीच अब तक पांच दौर की वार्ता हो चुकी है, लेकिन नतीजा कुछ नहीं निकला। हालांकि सरकार हालात की गंभीरता को समझ रही है और किसानों की ओर से बढ़ते दबाव को देखते हुए अब वह इतना तो झुकी है कि कृषि कानूनों में कुछ संशोधनों पर विचार के लिए तैयार हो गई है।
इससे एक बात तो यह स्पष्ट है कि कहीं न कहीं इन कानूनों में कुछ तो ऐसा है जिससे किसान समाज उद्वेलित है और उसे अपने भविष्य पर बड़ा खतरा मंडराता नजर आ रहा है। अगर कृषि कानूनों में ऐसा कुछ भी नहीं होता जो किसानों के हितों के खिलाफ होता तो क्या सरकार संशोधनों की बात के लिए सहमत होती!
केंद्रीय कृषि राज्यमंत्री कैलाश चौधरी ने रविवार को सरकार के इस रुख को दोहराया कि कृषि कानूनों में जरूरी संशोधन तो किए जा सकते हैं, लेकिन उन्हें वापस लेने का तो सवाल ही नहीं है। नौ दिसंबर को सरकार और किसान संगठनों के बीच छठे दौर की वार्ता के पहले कृषि राज्यमंत्री का यह बयान सरकार के कड़े रुख को स्पष्ट करता है।
दूसरी तरफ किसानों के भारत बंद को जिस तरह से लगभग सभी विपक्षी दलों ने समर्थन दिया है, यहां तक कि राजग की सहयोगी बहुजन समाज पार्टी तक ने भी, उसे सरकार के खिलाफ विपक्ष दलों के एकजुट होने के रूप में देखना अतिशयोक्ति नहीं होगी।
किसान आंदोलन को विपक्ष के इस समर्थन को सरकार के खिलाफ हवा देने के रूप भले देखा जाए, लेकिन ज्यादा महत्त्वपूर्ण संदेश यह जा रहा है कि इन कृषि कानूनों में खामियां तो हैं, वरना अध्यादेश लाने जैसी जल्दबाजी सरकार क्यों करती। बेहतर होता पहले किसानों से चर्चा होती और फिर संसद में विचार-विमर्श के बाद इस दिशा में बढ़ा जाता।
संतोष की बात तो यह है कि किसानों का आंदोलन अब तक शांतिपूर्ण रहा है। हालांकि दिल्ली से लगी सीमाओं पर सड़कों, राजमार्गों पर किसानों के डेरा डालने से लोगों को सुबह-शाम भारी जाम से दो चार होना पड़ रहा है।
स्थानीय व्यापारियों के लिए माल की आवाजाही का संकट खड़ा होने लगा है। इन सबके बीच जिस भारी संख्या में किसान सड़कों पर डटे हैं, उसमें कोरोना संक्रमण फैलने का भी बड़ा खतरा है, जिसकी गंभीरता को कोई नहीं समझ नहीं रहा।
दुखद तो यह है कि आज सत्ता पक्ष और विपक्ष दोनों ही एक दूसरे पर किसानों को भ्रमित करने का आरोप लगा रहे हैं। जबकि हकीकत यह है कि आजादी के बाद से अब तक सत्ता में चाहे किसी भी दल की सरकार रही हो, किसानों की हालत में उल्लेखनीय सुधार नहीं आया। ऐसे में क्या यह वक्त राजनीति करने का है? हर साल जितनी बड़ी संख्या में किसान खुदकुशी करते हैं, वह एक कृषि प्रधान देश के लिए बहुत ही शर्मनाक बात है।
सरकार और विपक्ष दोनों के लिए गंभीर सवाल है। बेहतर यही होगा कि कृषि कानून के मुद्दे पर सरकार विपक्षी नेताओं और विशेषज्ञों के साथ विचार-विमर्थ कर इस संकट का सर्वमान्य हल निकाले। विपक्ष भी सकारात्मक रुख के साथ आगे आए और किसान संगठन भी जिद का रुख छोड़ें। वरना कैसे गतिरोध टूटेगा?

