यह परिपाटी-सी बनती जा रही है कि जब भी किसी राजनेता पर भ्रष्टाचार के आरोप लगते हैं तो वह संबंधित जांच एजंसी को ही कठघरे में खड़ा करने लगता है। उसकी मंशा पर सवाल उठाना शुरू कर देता है। अगर संबंधित राजनेता किसी राज्य की कमान संभाले हुए हो तो वह अपने पक्ष में पूरे तंत्र को खड़ा कर देता है। दिल्ली और झारखंड के मुख्यमंत्री यही पैंतरा आजमा रहे हैं।

अवैध खनन में धनशोधन मामले की जांच के सिलसिले में पूछताछ के लिए प्रवर्तन निदेशालय झारखंड के मुख्यमंत्री को सात बार समन भेज चुका है, मगर वे किसी न किसी बहाने उसमें सहयोग करने से बचते रहे हैं। उन्होंने पार्टी, विधायकों और मंत्रियों की बैठक बुला कर समर्थन हासिल कर लिया है कि अगर प्रवर्तन निदेशालय उनके खिलाफ कोई अनुशासनात्मक कार्रवाई करता है, तो भी वही मुख्यमंत्री पद की जिम्मेदारी संभालते रहेंगे।

इससे पहले यही कवायद दिल्ली के मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल कर चुके हैं। उन पर कथित दिल्ली शराब घोटाले में सहयोग करने का आरोप है। प्रवर्तन निदेशालय उन्हें तीन बार पूछताछ के लिए बुला चुका है, मगर वे उसके इरादे पर सवाल उठाते हुए उसके नोटिस को ही प्रश्नांकित कर चुके हैं। वे और उनकी पार्टी लगातार इसके पीछे केंद्र सरकार की गलत मंशा बताते रहे हैं।

यह अजीब किस्म की ईमानदारी है कि आरोपी जांच में सहयोग करने के बजाय खुद को पाक-साफ बताता फिरे। कायदे से आरोपी को जांच एजंसियों के सवालों का जवाब देकर साबित करना होता है कि वह निरपराध है। प्रवर्तन निदेशालय लंबे समय से दिल्ली शराब घोटाले और झारखंड में अवैध खनन से जुड़े मामलों की जांच कर रहा है।

उसे कुछ तो तथ्य हाथ लगे होंगे, जिनके आधार पर उसने दोनों मुख्यमंत्रियों को पूछताछ के लिए तलब किया है। दोनों मामलों में कई लोगों को संलिप्त पाया जा चुका है। आम आदमी पार्टी के राज्यसभा सांसद संजय सिंह भी कहते फिर रहे थे कि शराब घोटाले में उनका कोई हाथ नहीं है, मगर प्रवर्तन निदेशालय के सवालों पर वे अपने बचाव में उचित तथ्य पेश नहीं कर सके।

अब बेशक आम आदमी पार्टी उन्हें बेकसूर और साजिश के तहत फंसाया गया बता रही हो, पर अदालत ने भी माना है कि वे संदेह के दायरे से बाहर नहीं हैं। इसलिए मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल के इस तर्क में कोई दम नजर नहीं आता कि केंद्र सरकार उन्हें जेल भेजना चाहती है। जब तक ईडी के आरोपों को तथ्यों के जरिए बेबुनियाद नहीं ठहरा देते, वे सवालों के घेरे में बने रहेंगे।

दिल्ली के मुख्यमंत्री से इसलिए भी सवालों का सामना करने की अपेक्षा की जाती है कि वे अपनी पार्टी के गठन के दिन से ही दावा करते नहीं थकते कि उनकी पार्टी कट्टर ईमानदार है। ईमानदारी का प्रमाण इसका जुबानी एलान नहीं हो सकता। उसे सबूतों के साथ पेश करना पड़ता है। पिछले कुछ वर्षों से दिल्ली सरकार के अनेक फैसले और योजनाएं अनियमितताओं के आरोप झेल रही हैं।

हालांकि मुख्यमंत्री और उनके मंत्री दावा करते हैं कि हर काम उन्होंने पारदर्शी तरीके से किया है। अगर ऐसा है तो जांच एजंसियों के सवालों से भागने की जरूरत क्या है। जनहित से जुड़े मामलों में लगे भ्रष्टाचार के आरोप राजनीतिक रंग दे देने से समाप्त नहीं हो जाते। यह ठीक है कि जांच एजंसियों के कामकाज के तरीके पर भी पिछले कुछ वर्षों में गंभीर सवाल उठे हैं, पर इससे सोरेन और केजरीवाल को बचाव का रास्ता नहीं मिल जाता।