छत्तीसगढ़ की आदिवासी कार्यकर्ता और आम आदमी पार्टी की नेता सोनी सोरी पर हुए हमले से विरोध की आवाजों को खामोश करने की भयावह कोशिशें फिर से उजागर हुई हैं। इस हमले में ज्वलनशील पदार्थ पोते जाने से सोरी का चेहरा झुलस गया और आंखों के लिए भी गंभीर खतरा पैदा हो गया। जगदलपुर में प्राथमिक उपचार के बाद उन्हें दिल्ली के अपोलो अस्पताल लाया गया जहां फिलहाल उनकी हालत खतरे से बाहर बताई जा रही है। सवाल है कि आखिर छत्तीसगढ़ भी उन खतरों से की जद से बाहर कब होगा जो वहां के आदिवासियों-वंचितों को दबोचने के लिए हर तरफ घात लगाए रहते हैं? सोनी सोरी का कसूर बस इतना है कि वे गरीबों-आदिवासियों के अधिकारों के लिए लड़ने के साथ ही पुलिसिया दमन-उत्पीड़न के विरुद्ध भी आवाज बुलंद करती रही हैं। इसके लिए उन्होंने आम आदमी पार्टी के उम्मीदवार के तौर पर 2014 का लोकसभा चुनाव भी लड़ा था।

उसमें हारने के बावजूद सामाजिक कार्यों में उनकी सक्रियता धीमी नहीं पड़ी। पेशे से शिक्षिका रहीं सोरी को नक्सलियों की सहयोगी होने के आरोप में पुलिस ने गिरफ्तार भी किया था। आदिवासियों के शोषण और फर्जी मुठभेड़ों का मुद््दा उठाने के कारण वे न केवल आपराधिक तत्त्वों बल्कि पुलिस के भी निशाने पर रही हैं। सवाल है कि क्या आदिवासियों के हक में और पुलिसिया जुल्म के खिलाफ आवाज उठाना गुनाह है? इस हमले के बाद हालांकि छत्तीसगढ़ सरकार ने सोनी सोरी को ‘वाई श्रेणी’ की सुरक्षा देने का फैसला किया है, लेकिन इतने भर से प्रदेश में कार्यरत सामाजिक कार्यकर्ताओं में सुरक्षा का एहसास जगाया जा सकता है?

काफी वक्त से छत्तीसगढ़ का बस्तर इलाका नक्सली हिंसा के लिए सुर्खियों में रहा है। इससे निपटने के लिए राज्य और ज्यादा हिंसा तथा दमनात्मक तरीकों का सहारा लेता रहा है। जवाब में नक्सली गुट भी सुरक्षा बलों को निशाना बना कर और ज्यादा जघन्य हमलों को अंजाम देने लगते हैं। नतीजतन हिंसा-प्रतिहिंसा का अंतहीन दुश्चक्र चलता है जिसकी चपेट में दोषी कम और निर्दोष लोग ज्यादा आते हैं। आज छत्तीसगढ़ में आमजन नक्सलियों और पुलिस रूपी दो पाटों के बीच पिसने को मजबूर हैं। पुलिस उन्हें नक्सली या उनके सहयोगी करार देकर निशाने पर लेती है तो उधर नक्सली भी उन्हें पुलिस के मुखबिर समझ कर मौत के घाट उतारने को तैयार रहते हैं। सोरी पर हमले के पीछे भी उनके द्वारा बस्तर में एक फर्जी मुठभेड़ की जांच की मांग करना और इस सिलसिले में एफआईआर दर्ज कराने की कोशिशों को तात्कालिक वजह माना जा रहा है।

इस मामले में उन्हें मुंह बंद रखने वरना गंभीर परिणाम भुगतने की धमकियां भी मिल रही थीं। मानवाधिकार संगठन एमनेस्टी इंटरनेशनल ने भी पुलिस के रवैये पर अंगुली उठाते हुए कहा है कि बस्तर में पुलिस और उसके द्वारा तैयार किए गए तथाकथित सामाजिक संगठन निजी सेनाओं की तरह बर्ताव कर रहे हैं। गौरतलब है कि ऐसे कुछ संगठनों द्वारा फर्जी मुठभेड़ोें की खबरें छापने वाले पत्रकारों और कानूनी सलाह मुहैया कराने वाले वकीलों को नक्सलियों के पिट््ठू करार देकर उनके घरों पर पत्थरबाजी, नारेबाजी और गाली-गलौज करके प्रताड़ित किया जाता रहा है। इस सब के मद्देनजर क्या सोनी सोरी पर हुए हमले से सबक लेकर सरकार और पुलिस को अपने रवैये में सुधार और नक्सलवाद से निपटने की रणनीति पर पुनर्विचार नहीं करना चाहिए!