लद्दाख के लेह में जिस तरह के हालात पैदा हुए, उसके बाद केंद्र सरकार शांति कायम करने के लिए सभी स्तरों पर कार्रवाई कर रही है। मगर इसके साथ कुछ सवाल भी उठे हैं कि आखिर वहां के लोगों के सामने ऐसी स्थिति क्यों आई कि उन्हें अपनी मांगों को लेकर लेह में आंदोलन पर उतरना पड़ा। उसी दौरान किन्हीं कारणों से वहां जमा लोगों ने अपना धीरज खो दिया और व्यापक अराजकता का माहौल बन गया, तो उसे संभालने के लिए सरकार की ओर से कार्रवाई को एक हद तक जरूरी माना जा सकता है।
मगर क्या इस पर भी विचार करने की जरूरत नहीं है कि लेह में आंदोलनकारियों की मांगों की पृष्ठभूमि क्या है और उसे पूरा किया जाना क्यों तथा किस हद तक जरूरी है? गौरतलब है कि पिछले हफ्ते लेह में आंदोलन के दौरान लोगों के अराजक हो जाने के बाद पुलिस की गोलीबारी में चार लोगों की जान चली गई और हिंसा में कई लोग बुरी तरह घायल हो गए। फिर वहां के जलवायु कार्यकर्ता सोनम वांगचुक को राष्ट्रीय सुरक्षा कानून के तहत गिरफ्तार करके लद्दाख से बाहर भेज दिया गया।
वर्षों पुरानी है लोगों की मांग
इस कार्रवाई को लद्दाख में फिर अराजकता या किसी साजिश की आशंका के मद्देनजर एहतियाती कदम के तौर पर देखा जा रहा है। मगर सवाल है कि अगर इस आंदोलन की पृष्ठभूमि पिछले कई वर्षों से बन रही थी, तो उसे समय रहते संबोधित करना और किसी ऐसे हल का खाका तैयार करना सरकार को जरूरी क्यों नहीं लगा, जिसमें सभी पक्षों की सहमति हो। लेह में आंदोलन कर रहे लोगों की मुख्य मांगें वही थी, जिसके लिए कई वर्ष पहले उनसे वादा किया गया था।
केंद्रशासित प्रदेश लद्दाख को पूर्ण राज्य का दर्जा दिए जाने और संविधान की छठी अनुसूची के तहत सुरक्षा देने की मांग के साथ शुरू हुए आंदोलन के मुद्दे नए नहीं थे। मगर लगातार इस मसले पर टालमटोल और वहां के संबंधित पक्षों से ठोस बातचीत को लेकर सरकार की उदासीनता ने एक ऐसी पृष्ठभूमि बनाई कि उसमें स्थानीय युवाओं के बीच बढ़ती बेरोजगारी जैसे मुद्दे भी शामिल हो गए।
लोकतांत्रिक तरीके से चल रहे आंदोलन के समांतर हुई व्यापक हिंसा
जाहिर है, एक ऐसी स्थिति बन रही थी, जिसमें आंदोलनकारियों के बीच मौजूद कुछ अवांछित तत्त्वों के अराजक हो जाने की आशंका थी। मगर न तो संवाद को प्राथमिकता देकर हल खोजने की कोशिश की गई और न ही स्थानीय आबादी को विश्वास में लिया गया। अंदाजा इससे लगाया जा सकता है कि लोकतांत्रिक तरीके से चल रहे आंदोलन के समांतर व्यापक हिंसा हुई, मगर वहां के खुफिया तंत्र को शायद इसकी भनक नहीं लगी। जबकि चीन की सीमा के पास स्थित होने की वजह से लद्दाख को बेहद संवेदनशील इलाके के तौर पर देखा जाता है और वहां की हर संभावित परिस्थिति का आकलन करके जरूरी कदम उठाना सरकार की प्राथमिक जिम्मेदारी है।
स्थानीय तकाजों के मुताबिक उठे मुद्दों की बहुस्तरीय अनदेखी और उसके प्रति उदासीनता का नतीजा यह हुआ कि पर्यटन को आकर्षित करने और शांतिपूर्ण जीवन तथा संस्कृति की पहचान वाले उस इलाके में हुए आंदोलन के बीच अराजकता और हिंसा ने भी अपने पांव फैला लिए। अब लेह के प्रदर्शनकारियों को लेकर कई तरह की आशंकाएं और संदेह जताए जा रहे हैं, लेकिन यह भी सच है कि अब तक इस संबंध में सरकार ने जांच करने की जरूरत शायद नहीं समझी थी। अब भी अगर सरकार स्थानीय आबादी की मुख्य मांगों के संदर्भ में ईमानदार इच्छाशक्ति दिखाए, तो किसी भी साजिश को अंजाम देना संभव नहीं हो सकता!