यह पहला मौका है जब सीबीआइ के शीर्षस्थ अधिकारी को किसी मामले की जांच से अलग रहने को सर्वोच्च न्यायालय ने कहा है। न्यायालय के इस आदेश से सीबीआइ के निदेशक रंजीत सिन्हा की किरकिरी तो हुई ही है, सीबीआइ की संस्थागत साख पर भी सवालिया निशान लगे हैं। 2-जी मामले की जांच पर राजनीतिक और प्रशासनिक दबाव के आरोप काफी समय तक लगते रहे। इसी के मद््देनजर सर्वोच्च न्यायालय जांच पर निगरानी रखने को तैयार हुआ था। यह हैरानी में डालने वाली बात है कि जिस मामले की जांच पर सीधे सर्वोच्च अदालत की नजर हो, उसे प्रभावित करने के आरोप सीबीआइ के सबसे आला अधिकारी पर लगें। इससे जहां सिन्हा के दामन पर दाग लगे हैं, वहीं यह भी पता चलता है कि जांच को लेकर किस स्तर पर बेचैनी है, इसे भटकाने के लिए कुछ बहुत ताकतवर लोग किस हद तक सक्रिय रहे हैं।
‘सेंटर फॉर पब्लिक इंटरेस्ट लिटिगेशन’ ने याचिका दायर कर कहा था कि 2-जी मामले के कई आरोपी रंजीत सिन्हा से उनके घर पर मिलते रहे। एक आरोपी ने तो नब्बे दफा मुलाकात की थी। इसके साक्ष्य के तौर पर याचिकाकर्ता के वकील प्रशांत भूषण ने मुलाकाती रजिस्टर में दर्ज ब्योरे पेश किए थे। सिन्हा इस आरोप से इनकार करते रहे। जब सबूत को खारिज कर पाना मुश्किल दिखने लगा तो उन्होंने यह रट पकड़ ली कि ब्योरे मुहैया कराने वाले व्यक्ति का नाम बताया जाए। फिर, उन्होंने खुद सीबीआइ के अधिकारी संतोष रस्तोगी को घर का भेदिया करार दिया। यही नहीं, सिन्हा ने रस्तोगी का तबादला भी कर दिया। जबकि सर्वोच्च न्यायालय के कहने पर ही जांच-टीम में रस्तोगी को शामिल किया गया था। अदालत ने यह साफ निर्देश दिया था कि किसी भी जांच अधिकारी को छुआ न जाए। फिर सिन्हा ने वह तबादला क्यों किया?
यह पहले से लग रहा था कि दाल में कुछ काला जरूर है। अब तो अदालत ने वैसी टिप्पणी भी की है। यों अदालत ने मुलाकाती विवरण उपलब्ध कराने वाले व्यक्ति के नाम का खुलासा किए जाने की सिन्हा की मांग मान ली थी और इस बारे में सितंबर में आदेश जारी कर दिया था। मगर याचिकाकर्ता खुलासा न करने पर अडिग रहे, यह कहते हुए कि नाम बताने से विसलब्लोअर के लिए खतरा पैदा हो सकता है। इससे एक गलत नजीर कायम होगी और भ्रष्टाचार की जानकारी देने के लिए आगे आने वाले लोग हिचकेंगे। इस तर्क में दम था, और अच्छी बात है कि अदालत ने सितंबर का वह आदेश वापस ले लिया है। मामले की सुनवाई के दौरान विशेष लोक अभियोजक ने भी कहा कि सिन्हा ने 2-जी से जुड़े मामले में दखलंदाजी की थी; अगर उनके निर्देश माने जाते तो कुछ अभियुक्तों के खिलाफ पूरा मामला ही ध्वस्त हो जाता। जब जांच पर सर्वोच्च न्यायालय की नजर रहने पर यह हाल है, उसकी निगरानी न रहने पर क्या होता इसकी कल्पना की जा सकती है।
सीबीआइ निदेशक बनने के बाद और पहले भी सिन्हा कई बार विवाद में रहे। चारा घोटाले की जांच से पटना उच्च न्यायालय ने उन्हें अलग कर दिया था। उनकी नियुक्ति केंद्रीय सतर्कता आयोग की सिफारिशों को ताक पर रख कर की गई। निश्चय ही यह यूपीए सरकार का गलत फैसला था। अदालत ने कहा है कि सिन्हा के खिलाफ आरोप प्रथम दृष्टया विश्वसनीय लगते हैं। हालांकि उनका कार्यकाल सिर्फ दस दिन बचा है, पर सर्वोच्च अदालत की इस टिप्पणी के बाद उन्हें पद पर क्यों बने रहना चाहिए? उनकी जगह नए निदेशक का फैसला सरकार को जल्द करना होगा। पर उसे सीबीआइ की स्वायत्तता और जवाबदेही के मसले पर भी विचार करना चाहिए।
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