सुरेश सेठ
इक्कीसवीं सदी के पहले बीस साल गुजरने को आए, पर्यटक धरती के रमणीक स्थलों से उठ कर व्योम में सैर के लिए व्याकुल हो उठे हैं। इनके अग्रदूत के रूप में एक हंसता-बोलता महिला-रूप रोबोट भी व्योम में जाने की तैयारी में है। अंतरिक्ष ही नहीं, धरती से परे दूसरे ग्रहों में भी सामर्थ्यवान अपनी बस्तियां बसाने की तैयारी में हैं। इसके लिए आरक्षण करवाए जा रहे हैं। अग्रिम भुगतान की तैयारी हो रही है। लेकिन किसी पिछलग्गू की तरह हम अभी भी किसी नए फैशनेपरस्त, मगर व्याकरण और अर्थ की दृष्टि से गलत भाषा का सृजन करने के स्थान पर अपनी अभिव्यक्ति में प्राचीन कर्मी भाषा के तकिये ढूंढ़ रहे हैं!
जब युग के बाद युग बदलते जाएं और देश प्रगति या विकास के बड़े-बड़े दावे करने के बावजूद अपने आप को पीछे की ओर फिसलता पाए, सपने आकाश में उड़ने के हों और पांव पाताल की ओर रपटते नजर आएं, तो इसे अपने भाषणों और दावों में एक तरक्कीपसंद स्वप्न संसार रचने वाले लोगों को क्या उपालम्भ दिया जाएगा? ‘नाम बड़े और दर्शन छोटे।’ जी नहीं, इस देश की तरक्की की चाल के बारे में एक और बात भी कही गई है- ‘दो कदम आगे और दो कदम पीछे।’
नतीजा देश की आम जनता के लिए क्या निकला कि महापुरुषों ने अपनी बस्तियां ग्रहों में बसाने की सोच ली और हमारा बसेरा पहले भी फुटपाथ था, आज भी फुटपाथ है। हां, इस बीच ये कुछ और टूट-फूट गए, तो इसे आने वाले इस युग की तैयारी कह लीजिए कि जिसमें फुटपाथ इतने बड़े बन जाएंगे कि जिस पर सीधे हेलीकॉप्टर उतर जाएं। ये फुटपाथ तो नए बन जाएंगे, लेकिन फटेहाल आदमी सोचता है, अब इन फुटपाथों पर हेलीकॉप्टर उतरेंगे तो हम सोएंगे कहां? खैर साहब, चिंता कैसी! जहां नाम बड़े होंगे, वहां तो दर्शन छोटे ही रहेंगे। कहां तो सपना था आम आदमी के लिए हेलीकॉप्टर वाहन बनाने का। आजादी की पौन सदी बीत चली, हेलीकॉप्टर तो नहीं रहे, उन एक प्रतिशत लोगों के पास कि, जिनके पास धन-संपदा भारत जैसे बड़े देश के एक वर्ष के बजट के बराबर हो गई और हमारे लिए साइकिल युग की वापसी।
अब आम लोगों के लिए फुटपाथ तोड़ हेलीपैड बनाया जाएगा? वे तो फुटपाथ से भी गए, अब सोने के लिए क्या किसी नावदान की तलाश करें? वैसे आजकल देश के नावदान तलाश करना कठिन नहीं। जब से देश में स्वच्छ भारत की आवाज ऊंचे स्वर में होने लगी है, देश और भी अस्वच्छ हो गया है। सड़कों के किनारे कूड़े के ढेर लगने लगे हैं। सफाई का मशीनीकरण हो रहा है। सप्ताह में रोज कूड़ा फेंकने वालों की ट्रॉ़लियां इन सड़कों के किनारों पर कृपा करती रहती हैं।
कूड़ा फेंकना बाकायदा एक व्यवसाय बन गया। बड़े होटलों, अस्पतालों और व्यावसायिक संस्थानों का कूड़ा-कर्कट, बचा-खुचा, रात के अंधेरे में इन सड़क किनारे फेंकने के लिए बाकायदा कूड़ा माफिया और इनकी ट्रालियां बन गर्इं। देश में कूड़ा सफाई का मशीनीकरण हो गया। एक ही दिन में सब कूड़ा साफ हो जाता है। शेष छह दिन इन किनारों पर नियोजित ढंग से कूड़ा फेंका जाता है। अहा! इक्कीसवीं सदी के साथ कैसा कूड़ा नियोजन हुआ। हफ्ते का काम एक दिन में निपट गया, अब मजे से सप्ताह भर कूड़ा फेंकिए, एक दिन में उठवा दीजिए।
इस अभियान में देश अधिक स्वच्छ हुआ कि अस्वच्छ? इस पर चिंतन बाद में करेंगे। अभी तो कूड़ा स्वच्छता अभियान के मशीनीकरण का प्रशस्ति गायन कीजिए। चाहें तो ताली भी बजा सकते हैं। लेकिन तालियां क्यों न सुरक्षित रख ली जाएं! उधर घोषणा हुई कि व्योम की शोध के लिए इक्कीसवीं सदी के अंतरिक्ष यानों में बातचीत करने वाले आदेश पर सक्रियता दिखाने वाले रोबोट जाएंगे और इधर यह सूचना भी मिल गई है कि स्वच्छ भारत के अगले कदम के रूप में अब बंद सीवरेज की सफाई रोबोट करेंगे। वे बाकायदा आदेश सुनेंगे, जी हजूर कहेंगे और सफाई के बाद आपसे बख्शीश भी नहीं मांगेंगे।
यानी बख्शीश युग का अंत होने जा रहा है। इस बड़ी जनसंख्या वाले देश में ऐसे रोबोट बनाए जाएंगे, तो दंगा हो जाएगा। इसलिए क्यों न इस देश की स्पूतनिक की तेजी से बढ़ती जनसंख्या को रोबोट हो जाने का अदब सिखा दिया जाए? नेतागण अपने सपनीले भाषणों से, उत्तेजक नारों से अपनी शोभा यात्राओं के ठाठ में उनका इस्तेमाल किसी रोबोट की तरह कर सकेंगे।
क्या इनका काम भ्रष्टाचार उन्मूलन या कालाबाजारियों का सिर कुचलने के लिए नहीं किया जा सकता? क्यों नहीं हो सकता? आखिर इसे एक नए संघर्ष युग की शुरुआत का नाम देने में हिचकिचाहट क्या है? चाहे इसके अंतिम दर्शन तो उसी प्रकार छोटे रहेंगे, जैसे अभी आए भ्रष्टाचार सूचकांक ने बताया है कि भ्रष्टाचार खत्म करते समय अपना देश दो पायदान और नीचे खिसक गया है। इसलिए यहां भी केवल नाम ही तो देना है।