होटल की कांच खिड़की से ताजमहल को देख रहा हूं। वह स्थिर, चित्रजड़ित इमारत की तरह मुझे हमेशा लगा है। वह यहां से एक कैलेंडरी छवि की तरह भी दिखता है। ताज का यह जो तना हुआ-सा स्थिरपन है, वह भी अचंभित करता है। अब उसमें मटमैलापन है। कई बरस बाद उसे देख रहा हूं। आगरा इस बीच आया जरूर था, पर ताज के सामने पहुंचना न हो सका था। पिछली बार उसकी पृष्ठभूमि में ‘तुम्हारी अमृता’ नाटक देखा था- शबाना आजमी और फारूक शेख अभिनीत। वह ‘आगरा साहित्योत्सव’ के अवसर पर मंचित हुआ था। और वही फारूक शेख का इस नाटक में ‘अंतिम’ अभिनय था। उनका मैं हमेशा प्रशंसक रहा। इस नाटक में लगातार सुनाई पड़ने वाली उनकी आवाज मन को स्पर्श करती थी।

बिजली की रोशनी में ताज दूर से दिखना बंद हो जाता है। इस बार जब रात को भी उसकी ओर निगाह दौड़ाई तो सड़क पार के घरों की और शहर की अन्य रोशनी में वह ‘खो’ गया। सुबह उठा तो वह फिर दिखने लगा। सुबह की सैर के वक्त भी ताज को देखने की ‘स्मृतियां’ किसी चित्रावली की तरह दिखती रहीं। रह-रह कर। ताज की रघु राय द्वारा खींची गर्इं अपूर्व तस्वीरों की भी याद आई। हर स्मारक अपने साथ स्मृतियां लाता है- अपनी, और उस व्यक्ति के जीवन की भी, जिसने उसे देखा होता है।

सो, इसे कहां भूला हूं कि ताज मैंने 1979 में पहली बार देखा था। तब मैं उनचालीस साल का था। उस वर्ष मैं पहली बार जर्मनी गया था। वह मेरी पहली विदेश यात्रा भी थी। वे ‘विभाजित’ जर्मनी के दिन थे, सो पश्चिम जर्मनी में सब मुझसे ताज के बारे में पूछते थे। कोई उससे जुड़ी अपनी ‘स्मृतियां’ बताने लगता था। मैं कुछ संकोच में पड़ जाता। कहता कि ताज मैंने अभी तक देखा नहीं है। तभी तय किया था कि लौटते ही ताज को देखूंगा।

तब पश्चिम जर्मनी से दिल्ली लौटते ही पहला काम किया था कि पत्नी और दोनों बेटियों के साथ आगरा आया था। ताज देखा था। तब से कई बार देख चुका हूं। इस बार पत्नी और छोटी बेटी (जो अब चालीस पार कर चुकी है) के साथ आया हूं। सबकी ताज से जुड़ी अपनी स्मृतियां हैं। हम उनका साझा करते हैं। बेटी मेरी ही तरह ताज की दुरवस्था से चिंतित है। हमारी खिड़की से जो ताज का ऊपरी आधा हिस्सा दिखता है, वह र्इंट-सीमेंट के बेतरतीब मकानों के पार है। ताज तो अपनी भव्यता में सबसे पहले दिखता है, पर उन मकानों की भी अपनी कतार है।

बेटी की चिंता है कि इन मकानों के लिए कोई एक हल्का रंग सोचा जा सकता था। ‘पिंकसिटी’ जयपुर की तरह। चिंता यह भी है कि यह जो ताज का रंग धूमिल हो रहा है, वह कहीं और धूमिल न हो। पांच अगस्त के अखबार में संयोग से यह समाचार था कि सरकार ने लोकसभा में माना है कि देश के स्मारकों में अब तक ताज को चिह्नित किया गया है कि कैसे उसके रखरखाव में और सावधानी बरती जाए, उसे प्रदूषण से बचाया जाए।

खिड़की में झीना, पारदर्शी परदा कर देने पर ताज की सुंदरता मुझे बढ़ती प्रतीत होती है। हां, ताज है ही ऐसा कि उसे कई तरह से देखा जा सकता है। चांदनी रात में उसका आकर्षण और होगा, कई कोणों से देखने पर कुछ और, झीने परदे से देखने पर कुछ और। सूर्योदय के समय देखने पर कुछ और। अधिकतर लोग, जिनमें विदेशी प्रमुख हैं, उसे सूर्य के उगने के साथ देखते हैं।

ताज पर सुमित्रानंदन पंत की कविता की पंक्तियां याद आती हैं- ‘हाय मृत्यु का ऐसा अमर अपार्थिव पूजन…!’ वह ताज को देखने की एक दृष्टि है जरूर, पर ताज को निश्चय ही कई और तरह से देखा जाता रहा है। सबसे पहले तो एक अद्भुत वास्तुशिल्प के रूप में, प्रेम के प्रतीक, एक ऐतिहासिक काल खंड की विशेष उपलब्धि के रूप में। धरोहर, विस्मयजनक स्मारक के रूप में। ताज हमेशा ताजा भी लगता है। वह अपनी जगह स्थिर है। कायम है। उसके इर्द-गिर्द प्रकृति भी उसे लेकर कुछ नया करती रहती है।

सो, कल शाम को सूर्यास्त के समय उसके पास चिड़ियों का एक झुंड देखा था। उन चिड़ियों का जो शाम को अपने बसेरे पर जाने से पहले मंडराती हैं। उनका झुंड एक पारदर्शी चादर भी बन गया था। उसके बीच से भी ताज को देखा। उसे बदलियों के बीच देखा था। भरी दोपहर में धूप में भी। उसका अपना ऐश्वर्य है, न होता तो आगरा के कई इलाकों की अस्वच्छता और शोर के बीच भी, वह इतना अप्रतिम, एक खिड़की से देखने पर भी भला क्यों लगता!