शिक्षा के व्यापक प्रसार के साथ आज लगभग हर छोटे-बड़े शहर और महानगर में सरकारी और निजी विद्यालयों में पढ़ने वाले बच्चों के लिए स्कूल से अलग किसी न किसी ऐसे शिक्षक से ट्यूशन पढ़ना पढ़ाई का एक अनिवार्य हिस्सा बन चुका है, जिसकी सफलता दर के किस्से कहे-सुने जाते हों। कुछ शिक्षकों ने किताबों से बाहर की दुनिया को ‘न देखो, न जानो, न समझो’ के सिद्धांत पर बच्चों को चला कर और परीक्षा में अधिकतम अंक अर्जित करा कर पहले आसपास ख्याति प्राप्त करना मकसद बना लिया है। फिर वे उसे आधार बना कर अपना आर्थिक आधार विस्तृत करते हैं और एक सफल शिक्षक होने के मापदंड को आज गलाकाट प्रतियोगिता और हर हाल में सफलता के इस बाजार में उच्चत्तम स्तर पर स्थापित कर देते हैं। इस क्रम में बच्चे अपने अंदर की रचनात्मकता से अनभिज्ञ और बाहर की वास्तविक दुनिया के प्रति उदासीन बनते हुए भविष्य की राह तय कर रहे हैं।
शिक्षा की मूल भावना के अनुरूप और एक शिक्षक के वास्तविक कर्तव्य के रूप में दी जाने वाली रचनात्मक शिक्षा के माध्यम से सशक्त समाज के निर्माण में प्रथम और निर्णायक योगदान देने वाले तमाम शिक्षक हैं। उनकी तरह मैं भी किताबों की दुनिया से अलग जब कभी भी समय मिलता है, बच्चों के अंदर छिपी अलौकिक रचनात्मक दुनिया में झांकने का प्रयास करता रहता हूं।
शिक्षा के साथ होने वाले इसी विचार-विमर्श के क्रम में अंतिम परीक्षाओं के साथ खत्म हो रही और अगली कक्षाओं की पढ़ाई के बीच पड़ने वाली छुट्टियों के बारे में मैंने उनकी राय जानने का प्रयास किया। एक सरल-सा प्रश्न था कि इस बार की छुट्टी कौन कहां मनाना चाहेगा! बच्चों के जवाब में कुल्लू-मनाली, माउंट आबू, गोवा, शिरडी जैसे शब्दों के बीच अपनी अपेक्षा के अनुरूप ‘अपने गांव’ शब्द न सुन कर मैंने एक और प्रश्न के माध्यम से यह जानने का प्रयास किया कि अपने गांव जाना बच्चों की पहली पसंद न होने के क्या कारण हो सकते हैं। कुछ बच्चों के सम्मिलित जवाब इस प्रकार थे- गांव में मुझे और मम्मी को अपना पसंदीदा शो और टीवी सीरियल देखने को नहीं मिलेगा; गांव में यहां शहरों जैसी साफ-सफाई न होने पर हम बीमार पड़ सकते हैं; कच्ची सड़क की वजह से बरसात में साइकिल नहीं चला सकते; वहां पिज्जा और फास्ट-फूड की होम डिलिवरी नहीं आ पाती है।
एक समय था जब बच्चों की आखिरी परीक्षा का समापन और चढ़ते बसंत में दादा-दादी या फिर नाना-नानी के यहां रवानगी को एक-दूसरे के अभिन्न हिस्से के रूप में उद्धृत किया जाता था। घर छोड़ने की तारीख को उंगलियों पर गिनना, करीब आते दिन के साथ हर रोज थोड़ी-थोड़ी तैयारी करना, गांव में रह रहे अपने रिश्तेदारों और परिजनों के लिए उपहार लेना वगैरह आम हुआ करता था। फिर समय के साथ टेलीविजन, मोबाइल, लैपटॉप या इंटरनेट जैसी तकनीक ने विकास की जरूरतों को अपनी परिधि से बाहर निकल कर बाजारवाद की देन उपभोक्तावादी प्रवृत्ति के रास्ते हमारे सामाजिक-सांस्कृतिक जीवन में अपनी पैठ बनाना शुरू कर दिया। इस विकास ने अपने फैलाव के तीव्र सफर के अगले चरण में बच्चों के शारीरिक-मानसिक विकास के हर उस स्रोत, जो शहरों के तार गांवों से जोड़ते थे, मसलन नाना-नानी की कहानियां, बीमार पड़ने पर दादी के घरेलू नुस्खे, किताबों से अलग बड़े-बुजुर्गों के अनुभवी ज्ञान, व्यर्थ हो चुकी वस्तुओं का फिर से उपयोग कर अधिकतम लाभ लेने की स्थानीय कला समय के साथ परिवर्तित होती गई। बाजार को भुनाने वाले कंप्यूटर गेम्स, कार्टून चैनल, ऑनलाइन अध्ययन, आधे घंटे में होम डिलिवरी आदि के रूप में उपलब्ध आकर्षक विकल्पों को घर-घर पहुंचाने के दावे के साथ शहरों और गांव की दूरी बढ़ती चली गई।
इस दूरी को बढ़ाने में बाजार ने जिस उत्साह से अपनी भूमिका निभाई, लगभग उसी उत्साह से समाज अपनी जिम्मेदारियों और कर्तव्यों से दूर होता गया। भारत को विकसित बनाने का सपना देखने वाले नीति-निर्धारकों के लिए यह बेहद चिंताजनक स्थिति है कि आने वाली पीढ़ी के जिन कंधों पर ग्रामीण भारत की सामाजिक-आर्थिक और भौगोलिक संरचना के उत्थान का दारोमदार है, वह आज गांवों को महज किताबों और टीवी की आभासी दुनिया के माध्यम से देख-सुन और समझ कर तैयार हो रही है। विकास के लिए तकनीक की जरूरतों और शहरी जीवन में ग्रामीण अनुभवों के उचित समावेश के बीच संतुलन को बनाए रखना और इस संतुलित वातावरण में आने वाली पीढ़ी को तैयार करना ही गांवों और शहरों का साझा समावेशी विकास और भारत के बेहतर भविष्य के लिए मौजूदा समय की सर्वोत्तम मांग है