बहुत इंतजार कराने के बाद पिछले दिनों पूरे दम-खम के साथ बादल बरसे। इसके साथ-साथ चारों ओर फैले दरख्तों पर मानो हरियाली का एक दरिया बह रहा था। अलग-अलग सुर में परिंदे अपने राग छेड़े हुए थे। दरख्तों की दुनिया ही कुछ खास होती है। जब भी उनके बीच होता हूं, अपने इंसान होने पर झेंपता हूं। सोचता हूं, बेहतर होता कि मैं भी कोई पेड़ ही होता- नीम, गूलर, पाकड़, पीपल या कोई और। धर्म, जाति, त्वचा के रंग, धन-दौलत, रीति-रिवाजों के नाम पर बंटी हुई एक कौम का नुमाइंदा होने में शर्म आती है। यहां तो कोई झगड़ा-फसाद भी नहीं है।

नीम की बगल में बरगद अपने पूरी गरिमा और शान के साथ खड़ा रहता है, तो पीपल जैसे जामुन को सहयोग और पोषण दे रहा होता है। एक-एक का नमन करने का जी करता है। एक अद्भुत व्यवस्था दिखती है प्रकृति में। न कोई द्वंद्व है, न होड़ और न कोई क्लेश। और जिस अर्थ में हम प्रेम को समझते हैं, उस अर्थ में प्रेम भी नहीं, अपनी तमाम बेचैनी और दुखों के साथ। हमारे मानव समाज में इसका पूरा अभाव दिखता है, जहां सब कुछ प्रतिस्पर्धा पर आधारित है। बस प्रेम और खुशी के लिए कुछ नहीं होता। जब तक किसी की हार न हो जाए, कोई हमें देख कर ईर्ष्या का अनुभव न करे, हमें विजेता होने का अहसास न दिलाए, उस दिन सब फीका-फीका सा लगता है। सवाल उठता है कि इस कुदरत का हिस्सा होते हुए भी क्या हम इससे बिल्कुल कट गए हैं? क्या इससे हम कुछ भी नहीं सीख पा रहे? उल्टे इनका विनाश करने में हृदय को बहुत ही कठोर और असंवेदनशील बनना पड़ता होगा। बड़े निर्मम हृदय वाले होते होंगे जो दरख्तों को काट डालते हैं। अस्तित्व उन्हें सद्बुद्धि दे!

‘द हिडन लाइफ आॅव ट्रीज’ पीटर होल्बेन की लिखी हुई एक मशहूर और प्यारी किताब है। मुख्यधारा के वैज्ञानिक इस किताब को लेखक के अवैज्ञानिक, भावुक दिमाग की उपज बताते हैं, पर वे यह भूल जाते हैं कि हमारी उदास पृथ्वी को आज बुद्धिजीवी वैज्ञानिकों की तो जरूरत है ही, साथ ही हृदयजीवी, स्वप्नदर्शियों और प्रेमियों की भी जरूरत है। होल्बेन दरख्तों को बहुत करीब से देख कर उनके बारे में लिखते हैं। उनकी धड़कनों और सांसों को गिनते हैं। दार्शनिक और रहस्यवादी जिद्दु कृष्णमूर्ति की तरह उनकी ध्वनियां सुनते हैं। उनके आपसी रिश्तों के निस्वार्थ आधार को निहारते हैं और मानव समाज के दरकते रिश्तों पर अप्रत्यक्ष तौर पर टिप्पणी भी करते हैं, क्योंकि अपनी स्वार्थपरायणता के कारण ही हम अपने खात्मे के कगार पर पहुंच गए हैं!

वृक्ष इस दुर्गुण से कोसों दूर हैं। होल्बेन कहते हैं कि दरख्त बहुत ही सामाजिक होते हैं। वे एक दूसरे की बहुत ज्यादा परवाह करते हैं, इतनी ज्यादा कि निर्ममता से काट दिए गए किसी वृक्ष की जंगल के बाकी वृक्ष सदियों तक देखभाल करते हैं। दरख्तों के आपस में जुड़े रहने का बस यही आधार होता है- ‘वुड वाइड वेब’ यानी डब्ल्यूडब्ल्यूडब्ल्यू। हमारी इंटरनेट की दुनिया के डब्ल्यूडब्ल्यूडब्ल्यू का एक प्राकृतिक रूप और ढब। यह मिट्टी के कवकों के एक जटिल आत्मीय संजाल से निर्मित है और इसके जरिए बड़ी मात्रा में लगातार सूचनाओं और पोषण का आदान-प्रदान होता है। कोई दरख्त द्वीप नहीं। आसपास की मिट्टी बीमार है, तो दरख्त स्वस्थ नहीं रह सकता।

कवक और वृक्ष के आपसी संबंध को लेकर वैज्ञानिक शोध हाल ही में शुरू हुआ है। वृक्ष आपस में भोजन और जानकारियां साझा करते हैं, क्योंकि उन्हें एक दूसरे की जरूरत होती है। जंगलों को एक सूक्ष्म या माइक्रो वातावरण का निर्माण करना पड़ता है जो वृक्षों के विकास और वृद्धि के अनुकूल हो। इसलिए जो वृक्ष अलग-थलग पड़ जाते हैं, उनके जीवन की अवधि जंगल में रहने वाले वृक्षों की अपेक्षा कम होती है। होल्बेन उदास होते हैं उन वृक्षों के लिए जिनको कृषि के नाम पर गुलाम बना दिया गया है। ये पेड़ अपने समाज से अलग हो जाते हैं और दूसरे दरख्तों से बातचीत नहीं कर पाते।

होल्बेन का मानना है कि पेड़-पौधे जब बूढ़े होते हैं तो इसका अर्थ यह नहीं कि वे कमजोर, बीमार और जर्जर हो जाते हैं। इसके विपरीत वे ऊर्जा से भरपूर और बहुत उत्पादक बन जाते हैं। इसका अर्थ यह है कि जब जलवायु परिवर्तन की बातें होती है, तो ये बूढ़े वृक्ष ही इंसान के बहुत ही करीबी मित्र बन जाते हैं। उन्हें बचाना हमारे हित में है। उन्हें काटने की बात तो सोचनी भी नहीं चाहिए। पर हम तो खुद में इतना अधिक खोए हैं कि हमें दरख्तों की जिंदगियों में झांकने की फुर्सत भी नहीं मिलती। हमारे लिए जंगल अच्छे फर्नीचर, कागज और सैर-सपाटे, खूबसूरती का स्रोत भर हैं। वर्ड्सवर्थ की एक कविता की खूबसूरत पंक्तियां याद आती हैं- ‘रोशनी में आगे बढ़ कर सामने तो आओ, कुदरत को अपना शिक्षक तो बनने दो’। इसे जीवन की सबसे कीमती सीख मानने में हम बहुत देर कर रहे हैं। समय का दरिया लगातार बह रहा है। हमारे होश में आने से पहले कहीं सूख न जाए।