देवेश मिश्रा

आम के बगीचे में गुलेल से आम तोड़ना, गुल्ली-डंडा खेलते-खेलते गांव के बाहर तक चले जाना, नहर को तैर कर इस पार से उस पार करना, मिट्टी के खिलौनों से घंटों खेलना, आईस-पाईस, ओल्हा-पाती, राजा-मंत्री और चोर-सिपाही और न जाने कितने ही ऐसे तमाम खेल, जिनके कारण हम सबका बचपन उत्साह और उल्लास से भरा हुआ था। सुबह से शाम तक उछल-कूद मचाना और शाम में थक कर जल्दी सो जाना। यही बच्चों की दिनचर्या हुआ करती थी। इस दौरान पढ़ाई-लिखाई भी हो जाती थी।

स्कूल के अपने अलग ही मजे हुआ करते थे। सुबह-सुबह मैदान की सफाई करना,फिर प्राथना और फिर बाल-सभा, जो एक ऐसा अवसर प्रदान करता था जहां हर एक बच्चा कोई गीत, कविता,या चुटकुला आदि सुनाता था। खाना खाने की छुट्टी होती थी तो सारे बच्चे भागते हुए अपने-अपने घरों की ओर जाते थे और उसी रफ्तार में वापस आकर पढ़ाई शुरू कर देते थे। उनमें यह उत्साह और उर्जा न जाने कहां से आता था!

लेकिन आज जब महानगरीय जीवन में रचे-बसे बच्चों को देखता हूं तो मन उदास हो जाता है। महामारी के बाद तो मानो उनका बचपन किसी ने छीन लिया हो। जागरूक जनमानस इस आपदा में बच्चों को घर से बाहर नहीं जाने दे रहे, सभी स्कूल और ‘प्ले-वे’ बंद चल रहे हैं। ऐसे में बच्चे कैदियों की भांति घर में ही पूरा समय बिताने को मजबूर हैं। पहले कम से कम वे पार्कों में खेल-कूद लेते थे, पर अब वह भी मयस्सर नहीं। इस समस्या पर एक न एक दिन काबू पा लिया जाएगा, लेकिन क्या महामारी के पहले शहरी बच्चों से उनका बचपन नहीं छीना जा रहा था?

दादी-नानी के उन किस्सों की जगह अब कार्टून चैनलों ने ले ली है। आईस-पाईस, गुल्ली-डंडा जैसे खेलों की जगह पबजी गेम ने ले ली है। राब, गट्टा, राबड़ी जैसे मिठाइयों की जगह अब मैगी ने ले ली है। हो सकता है कि आधुनिक समाज इसे विकास का हवाला देते हुए जायज ठहरा दे, मगर विश्व स्वास्थ्य संगठन की उस रिपोर्ट को तो हम दरकिनार नहीं कर सकते हैं जिसमें बच्चों के बीच बढ़ते मानसिक तनाव पर चिंता व्यक्त की गई है।

आप अपने आसपास देखेंगे तो महसूस करेंगे कि अब बच्चों में चंचलता कम हो रही है। वे अब शारीरिक रूप से कमजोर हो रहे हैं। उनके अंदर गुस्सा और चिड़चिड़ापन बढ़ता जा रहा है। वे अकेलेपन का शिकार हो रहे हैं। यहां तक कि आत्महत्या जैसे कदम भी उठा ले रहे हैं। आखिर इन सबके पीछे जिम्मेदार कौन है? मुझे उस दिन बेहद हैरानी हुई थी, जब मेरे एक मित्र ने बताया कि उनके पुस्तकालय में एक चौथी कक्षा का बालक आता है और पांच से सात घंटे पढ़ाई करता है।

मैं देखता हूं कि अभिभावक पूरे दिन बच्चों को पढ़ाई-लिखाई में व्यस्त रखना चाहते हैं। जरा-सा बच्चे ने इधर-उधर कुछ शैतानी की तो उसे डांट लगा दी। आजकल अभिभावक गर्व से फूल जाते हैं जब उनका बच्चा मोबाइल का ‘पैटर्न’ खोल लेता है। उन अभिभावकों से पूछना चाहिए कि क्या आपका बच्चा गेहूं और धान के फसलों में फर्क कर पाएगा? आपका बच्चा ‘छोटा भीम’ और ‘टॉम एंड जेरी’ के बारे में तो जानता है, पर क्या वह भगत सिंह और प्रह्लाद के बारे में कुछ बता पाएगा?

दरअसल, ‘स्टैण्डर्ड मेंटेन’ करना मानो हम भारतीयों खासकर शहरियों ने अपना मूल-कर्त्तव्य बना लिया हो। गला-काट प्रतिस्पर्धा का माहौल बन गया है और इसी प्रतिस्पर्धा के दौड़ में बच्चों से उनका बचपन छीन कर उन्हें भी दौड़ाया जा रहा है। उनसे उनका उत्साह, उल्लास, मनोरंजन- सब छीन कर भारी-भरकम किताबें थमा दी जा रही हैं। कोटा जैसे शहरों में तो छठी कक्षा के बच्चे अपने घरों को छोड़ ‘आइआइटी’ और ‘नीट’ जैसी प्रतियोगी परीक्षाओं की तैयारियां कर रहे हैं। कोचिंग की वजह से उन्हें लंबे समय तक घर जाने का मौका नहीं मिल पाता। चौदह-पंद्रह वर्ष का बच्चा घर, अभिभावकों, दादी-नानी की कहानियों से सैकड़ों-हजारों किलोमीटर दूर एक होड़ में है।

एक और अभिशाप है जिससे हमारा देश आज तक नहीं उबर पाया- बाल मजदूरी। सख्त कानून होने के बावजूद फैक्ट्रियों, दुकानों में, ठेलों पर हम आप रोज छोटे-छोटे बच्चों को देखते हैं, जिनसे उनका बचपन छीन कर मजदूरी कराया जा रहा है। राजनीतिक पार्टियां भी इन मुद्दों को लेकर खामोश रहती हैं। उन्हें बच्चों में वोट नहीं नजर आता। सभ्य समाज को इस विषय पर गंभीरता से चिंतन कर कोई निर्णायक कदम उठाना चाहिए।

मसलन, बच्चों पर पढ़ाई को बोझ के रूप में नहीं थोपना, बच्चों के योग्यता और काबिलियत का आकलन उनके परीक्षा परिणाम के अनुसार न करना, घर का माहौल सकारात्मक रखना, उन्हें प्राकृतिक और ऐतिहासिक जगहों के बारे में बताना और ऐसी जगहों पर छुट्टियां बिताने ले जाना, उन्हें लोक-कथाओं और लोक-गीतों के बारे में बताना, पौष्टिक भोजन देना, नियमित खेल-कूद के लिए प्रेरित करना, अभिभावकों का अपने बच्चों के साथ नियमित बातचीत करना, उनके रचनात्मक पक्षों का विकास करना, उनसे अभिभावकों-सा नहीं, बल्कि दोस्तों-सा व्यवहार करना आदि बातों को ध्यान में रख कर हम धीरे-धीरे वापस उस स्थिति तक पहुंच सकते हैं, जहां हर बच्चा खुश होगा और अपनी मुस्कराहट से औरों को भी खुश कर देगा। मुस्कराता हुआ समाज ही एक विकसित और खूबसूरत समाज कहलाता है। वह विकास किस काम का जहां क्रंदन, उदासी और तनाव हो?