सदाशिव श्रोत्रिय

किसी भोगवादी समाज की एक विशेषता यह भी होती है कि वह अपने या दूसरों के भविष्य की सारी फिक्र छोड़ कर केवल अपने वर्तमान को अधिक से अधिक आनंददायक बनाने की चेष्टा में जुट जाता है। पर जो लोग केवल अपने लिए नहीं जीना चाहते, दूसरों के कल्याण में अपना कल्याण देखते हैं और जो अपनी मौज-मस्ती के लिए अपने बाद वाली पीढ़ियों को संकट में डाल देने को अनैतिक मानते हैं, वे कभी भविष्य की चिंता किए बिना नहीं रहते। जिन्हें समूची मानवता से प्रेम है और जो उसे निरंतर विकसित होते देखना चाहते हैं, वे कदापि अपनी दृष्टि को केवल वर्तमान तक सीमित नहीं रख सकते। अगर ऐसे लोग इस दुनिया में न होते तो हम आज तक ज्ञान के विभिन्न क्षेत्रों में वह प्रगति नहीं कर पाते, जो हमने की है।

भोगवाद की व्यापकता पिछले कुछ समय में इतनी बढ़ी है कि उसके कारण व्यक्ति अधिकाधिक आत्मकेंद्रित होता चला गया है और उसने अपने निकटस्थ लोगों तक की चिंता करना छोड़ दिया है। औद्योगीकरण, मुनाफाखोरी और भ्रष्टाचार ने कुछ लोगों की आय को इतना बढ़ा दिया है कि वे उसे खर्च करने के एक से एक नए तरीके खोजने में लगे रहते हैं। अभी-अभी कुछ अमीरों ने अंतरिक्ष यात्रा को अपना नया लक्ष्य बनाया है, जबकि इस दुनिया के बहुत से लोग आज भी घोर अभाव और बेरोजगारी का जीवन जीने को अभिशप्त हैं।

हमारे अधिकतर समकालीनों को जैसे इस बात की कोई चिंता ही नहीं है कि भविष्य में उनकी स्वयं की संतति के लिए यह पृथ्वी जीने योग्य भी रह पाएगी या नहीं। औद्योगिक उत्पादन द्वारा होने वाले प्रदूषण को रोकने के लिए आए दिन एक से एक नए अंतरराष्ट्रीय सम्मेलन होते हैं, पर उन्नत देशों का सत्ता और संपत्ति का लालच इस कदर बढ़ा हुआ है कि उन तमाम सम्मेलनों और अनेकानेक गोष्ठियों के बावजूद धरती का तापमान बढ़ता जा रहा है, ग्लेशियर पिघल रहे हैं, दिल्ली जैसे शहरों के लोग कई बार वायु-प्रदूषण के कारण अपने बच्चों को घर से बाहर भेज सकने की स्थिति में नहीं रहते। फिर भी हमारे देश में कारों का उत्पादन और क्रय-विक्रय कई उन्नत देशों की तुलना में अधिक हो रहा है।

यह बढ़ते भोगवाद का ही प्रमाण है कि आज ऊर्जा के हर आसन्न संकट के बावजूद अधिकतर लोग अपने बिजली के उपभोग के बारे में कटौती का विचार नहीं करते। ‘अपव्यय’ बहुत से लोगों के लिए अब एक अपरिचित शब्द बनता जा रहा है। अब तो सारी होड़ जैसे अधिकाधिक व्यय की सामर्थ्य के लिए लगी है। कारपोरेट घरानों ने हमारे अधिकांश प्रतिभाशाली युवाओं को अकल्पनीय रूप से ऊंचे वेतन पर अपने भौतिक उत्पादनों में वृद्धि के उद्देश्य से स्थायी रूप से अपना गुलाम बना लिया है।

मनुष्य के रूप में उनके इन गुलामों के अनुभवों और कामनाओं का क्षितिज ही कारपोरेट ने जैसे सिर्फ कमाने और खर्च करने तक सीमित कर दिया है। शस्त्र-उद्योग और भवन-निर्माण-उद्योग को जारी रखने के लिए आज भी अंतरराष्ट्रीय स्तर पर न जाने कितनी तिकड़में लगाई जाती हैं। ‘नष्ट करो और पुनर्निर्मित करो’ जैसे आज की जीवन-शैली का एक आवश्यक अंग ही बन गया है। वोटों की खेती के लिए गरीबों को आज कितनी तरह के झूठे वादों और झूठी बातों से गुमराह किया जाता है! हर किस्म का मीडिया आज दगाबाजी और धोखाधड़ी के इस खेल में उनका साथ देने को किस सीमा तक तैयार रहता है!

यह भोगवादी सोच का ही दुष्परिणाम है कि आत्मिक के बजाय भौतिक उपलब्धियों को ही आज मानव जीवन की अंतिम और श्रेष्ठतम उपलब्धि के रूप में देखा जाने लगा है, जबकि हमारे यहां पहले कभी ऐसा नहीं रहा। भौतिक उपलब्धियों को नकारने वाले ही पहले लोगों की प्रशंसा के पात्र रहते थे। मूल्यों का यह विपर्यय हमारे देश के लिए सचमुच एक गहरी चिंता का विषय है।

आज हर मुनाफाखोर व्यापारी मनुष्य की उन इच्छाओं को उद्दीपित करने की चेष्टा में लगा है, जिन्हें नियंत्रण में रखना किसी भी प्रकार की आत्मिक उन्नति के लिए आवश्यक माना गया है। यह किंचित आश्चर्यजनक है कि जिन यम-नियम को योग की पहली दो सीढ़ियां माना जाता है, उन पर चढ़े बिना ही आज का योग-साधक ध्यान और समाधि की उस अवस्था तक पहुंच जाना चाहता है, जिसे वह स्वयं उसके मोक्ष के लिए आवश्यक मानता है।

लोगों को गुमराह करना चाहने वाली हर सोच अपने लिए एक विशेष दर्शन और विचार-पद्धति भी ईजाद कर लेती है। यदि कोई व्यक्ति आज भाषा की शुद्धता, मितव्यय, नियम-पालन, कर्तव्यपरायणता, भविष्य की चिंता आदि की बहुत ज्यादा बात करे तो उसे ओसीडी या एंग्जाइटी जैसे किसी मनोरोग का शिकार मान कर सामान्यत: किसी मनश्चिकित्सक के परामर्श से किसी दवा के नियमित सेवन की सलाह दी जाती है।