शकुंतला देवी

बेबसी और गरीबी पर किसी विचारक ने कहा है- गरीब व्यक्ति की मजबूरी उसकी जिंदगी का वह कड़वा सच है, जिसे समाज में लोग कभी समझने की कोशिश नहीं करते, क्योंकि उनके लिए यह सामान्य बात होती है। ऐसी ही सामान्य बात एक महिला ने बताई, तो मैं सोचने लगी कि क्या वाकई गरीबी इतनी बेरहम होती है। एक दिन विश्वविद्यालय चैराहे से लौट रही थी। देखा, एक महिला की गोद में एक महीने का बच्चा था और उसकी छोटी बच्ची डफली बजा कर गाते हुए मटक रही थी। मैं रुकी, यह देखने के लिए कि यह छोटी बच्ची गाने गाकर क्या गुजारे भर के लिए पैसा जुटा पाती है!

दो-चार लोग और खड़े होकर बच्ची की सुरीली आवाज और उसके मोहक मटकने के अंदाज को देख रहे थे। उसने गाना खत्म किया और डफली को उलटा कर वहां मौजूद लोगों से पैसे के लिए चिरौरी करने लगी। मैं उसकी उम्र देख कर भावुक हो गई। अपनी जेब से पांच रुपए का नोट निकाला और बच्ची को थमा दिया। बच्ची खुश हो गई। वहां खड़े लोग भी अपनी जेब टटोलने लगे। यह देख कर मुझे उनके प्रति अनचाहा रोष पैदा हुआ। क्या किसी की मदद देखा-देखी करनी चाहिए? क्या छोटी-सी बच्ची और उसकी मां के लिए समाज के कुछ लोग उसको गाने-बजाने से छुटकारा दिला कर एक बेहतर जिंदगी जीने के लिए मदद को आगे नहीं आ सकते?

ऐसे तमाम सवाल मेरे मन में लगातार उमड़-घुमड़ रहे थे कि अचानक किसी ने मुझे झकझोरा। पीछे मुड़ कर देखा, बचपन की दोस्त विमला मेरा कंधा पकड़े खड़ी थी। अरे तुम? हां, यहां तुम खड़ी होकर क्या कर रही हो? कुछ नहीं, यह देख रही थी कि जिंदगी में बेचारगी की मार से पेट पालने के लिए क्या नहीं करने पड़ते। देखो, उस छोटी बच्ची को। ज्यादा से ज्यादा पांच साल की होगी। परिवार पालने की जिम्मेदारी इसी उम्र में आ गई है उस पर। यह काम अगर समाज या सरकार करे तो सड़क पर बर्बाद होते बचपन को क्या बचाया नहीं जा सकता? मैं एक सांस में काफी कुछ कह गई। दोस्त बोली, तुम भी क्या इन लोगों के बारे में सोचने लगी हो। अरे, अपना करिअर देखो। क्या तुम बहुत सुख से रह रही हो?नहीं, लेकिन इसका मतलब यह तो नहीं कि मैं सुखी नहीं तो दूसरे के बारे में बात भी न करूं?

तभी बच्ची की मां उठी और गोद में बच्ची और हाथ में डफली लिए मेरे सामने आई और बोली, बहन! मंहगाई बहुत है। दस-बीस रुपए में तो एक जून की रोटी नहीं बन पाती। मेरी गोद में बच्चे के लिए कुछ मदद करा दो। तुम्हारा भगवान भला करेगा। मैं कुछ कहती कि मेरी दोस्त बोल पड़ी- तुम लोग दिन भर मांगती फिरती हो, झूठ बोलती हो, दस-बीस रुपए ही मिल पाते हैं क्या? अगर परिवार नहीं चलता तो इस काम में क्यों लगी हो? यह सुन कर वह महिला बोली- सब करके थक चुकी हूं। कई साल मैंने लोगों के यहां झाड़ू-पोंछा किया। मैंने क्यों वह काम छोड़ दिया, आप सुनना चाहती हो, तो सुनाऊं?

नहीं-नहीं मुझे नहीं सुनना है। मेरे कान पक गए हैं तुम लोगों की फालतू बातें सुनते-सुनते। तुम लोग मेहनत करना चाहती नहीं, बहाना बना कर हरामखोरी करने की आदत हो गई है। यह सुन कर मैं अंदर ही अंदर परेशान हो गई। मैं अपनी दोस्त को चुप कराते हुए बोली, देख विमला हर किसी की जिंदगी एक जैसी नहीं होती है। इसलिए हर किसी को हम झूठा या बहानेबाज नहीं कह सकते। हो सकता है, बेचारी के साथ कुछ ऐसा हुआ हो, जिसके कारण इसे घर में झाडू-पोंछा करने से तौबा करना पड़ा हो। हम दोनों की बात वह महिला ध्यान से सुन रही थी।

जब हम दोनों चुप हुए तो वह भावुक होकर बोली- ‘बहन! मैंने झाडू-पोंछा करना इसलिए छोड़ा, क्योंकि बच्ची घर पर अकेले रहती थी और जिन घरों में मैं काम करने जाती थी, वहां मेरे साथ जानवरों जैसा बर्ताव किया जाता था। कई बार बच्ची को लेकर भी घरों में जाना पड़ता था, क्योंकि उसे देखने वाला मेरे परिवार में कोई नहीं था। इससे बच्ची के ऊपर बहुत गलत असर पड़ रहा था।

मैं भी थोड़ा-बहुत पढ़ी-लिखी हूं। सब ऊंच-नीच जानती हूं। कल मेरी बच्ची बड़ी होगी तो मेरे साथ हो रहे इस तरह के बर्तावों को सामान्य मान कर वह भी मेरे काम में अपना भविष्य देखेगी। किसी की गुलामी से निकल कर आजाद रह कर, भले ही कम रकम आए, लेकिन बच्ची को गुलामी में रहने की आदत तो नहीं होगी।’मैं सोचने लगी, अरे वाह! एक साधारण किस्म की महिला भी ऐसा सोचती है। हम लोग सोचते हैं, इन लोगों को किसी तरह की समझ नहीं होती, लेकिन इसने तो बहुत बड़ी बात कह दी, जो सभ्य समाज के लिए कोई मायने नहीं रखती।