बृजमोहन आचार्य

पिछले दिनों ग्रामीण क्षेत्र की एक सरकारी स्कूल के वार्षिकोत्सव में भागीदारी का मौका मिला। ऊबड़-खाबड़ सड़कों से गुजरते हुए जब स्कूल में पहुंचा तो यह देख कर दंग रह गया कि गांव के बच्चों में प्रतिभा की कमी नहीं है, बस उन्हें और निखारने की दरकार है। यह स्कूल उच्च प्राथमिक स्तर का था और लड़के-लड़कियां दोनों साथ ही बैठ कर पढ़ाई करते हैं। वहां आए कई लोगों ने स्कूल के विकास के लिए आर्थिक सहयोग भी दिया। वहां एक समारोह में छोटे-छोटे बच्चों की प्रस्तुतियां देख कर यह सोचने को मजबूर हो गया कि अगर इन बच्चों को और मौका मिले और सही दिशा मिल जाए तो ये कहां से कहां तक पहुंच जाएंगे।

जब महात्मा गांधी को पढ़ रहा था तो एक जगह उन्होंने लिखा था कि भारत गांवों में बसता है। गांधीजी का यह कथन मुझे वहां पूरी तरह से समझ आ रहा था। आज हम टीवी पर रियलिटी शो भी देखते हैं तो उसमें ग्रामीण क्षेत्र की ऐसी-ऐसी प्रतिभाएं सामने आ रही हैं, जिन्होंने कभी सोचा भी न होगा कि वे चकाचौंध की इस दुनिया में कभी बस भी सकेंगे। सही है कि हर बच्चा कोई न कोई खासियत लेकर ही पैदा होता है। जरूरत होती है उसकी खासियत को पहचानने की और प्रतिभा को तलाशने की। हालांकि शहरी लोग देहाती लोगों को कम ही समझ पाते हैं। उनकी इस प्रकार के लोगों के बारे में एक ही धारणा घर किए हुए है कि देहाती लोगों को कोई समझ नहीं है। मगर ये लोग यह भूल जाते हैं जो व्यवहार और समझ आज ग्रामीण लोगों में हैं, उनकी शहरी लोगों में कमी है।

ग्रामीण लोग आज भी शाम के समय गांव की चौपाल में बैठ कर हर व्यक्ति के सुख-दुख में भागीदार बनते हैं। किसी के घर में शादी-विवाह समारोह और अन्य सामाजिक कार्यक्रम होते हैं तो सामूहिकता की भावना लिए अपना काम समझते हैं। लेकिन शहरी क्षेत्र में इस प्रकार की भावना कम ही देखने को मिलती है। इसका कारण यह समझ में आता है कि लोगों के पास समय का अभाव है और वे कामकाज में व्यस्त रहते हैं। लेकिन घर के आंगन में बैठते हैं तब भी किसी को बात करने की फुर्सत नहीं होती है। सभी के हाथों में पड़े स्मार्टफोन ने उनकी दुनिया को सिमटा दिया है।

कुछ दशक पहले तक घर में सिर्फ एक घड़ी एक हुआ करती थी और सभी के पास समय होता था। आज हर मोबाइल में घड़ी है, लेकिन लगभग सबके पास समय का अभाव है। मुझे याद है कि जब मेरे घर में पहली बार टेलीविजन आया तो घर के सदस्य तो क्या, गली-मोहल्ले के लोग भी आकर कार्यक्रम देखने के लिए एक साथ बैठ जाते थे। उस वक्त सभी के लिए घर के दरवाजे खुले रहते थे। सभी के लिए चाय-नाश्ते की व्यवस्था भी की जाती थी। घर के मुखिया यानी दादाजी के मन में कभी यह विचार नहीं आता था कि यह बच्चा मेरा, यह बच्चा पड़ोसी का है। उनके लिए सभी बच्चे उनके अपने थे। तब बच्चों ने घर-परिवार में सभ्यता और सलीका सीखा होता था और पड़ोस के बुजुर्गों का भी बराबर सम्मान करते थे। संयुक्त परिवार और मां-बाप की पाठशाला में बच्चों को नैतिकता का शुरुआती पाठ सिखाया जाता था। लेकिन जब से एकल परिवार की प्रथा चलन में आई है, तब से परिवार, लोग और बच्चे खुद में सिमटने लगे हैं।

बहरहाल, बात प्रतिभा की तलाशने की है। कुछ समय पहले की बात सभी को याद होगी कि गली-गली में घूम कर जूतों की पॉलिश करने वाला एक युवक जटिल गीतों को गाने वालों का सरताज बन गया था, क्योंकि उसे मंच देने वालों ने उसकी प्रतिभा को पहचान लिया था। साथ ही उसे पूरा मौका देकर यह बता दिया था कि किसी भी बच्चे में प्रतिभा की कमी नहीं है। हाल ही में राजस्थान के एक लोक कलाकार की प्रतिभा भी देखने को मिली थी। अपना तथा अपने परिवार के पेट की आग को शांत करने के लिए यह कलाकार गांव-गांव में कठपुतली का खेल दिखा कर दो पैसा कमाता था और अपनी आवाज में आधा-अधूरा गीत गाकर सभी का मनोरंजन करता था। उसने कभी यह सोचा न होगा कि उसकी आवाज एक बड़े रियलिटी शो की आवाज बन जाएगी।

राजस्थान के कई स्कूलों में हर शनिवार को पहले बाल सभाएं आयोजित करने का मुख्य उद्देश्य भी यही होता था कि बच्चों को मंच पर बुला कर उन्हें अपने साथियों के बीच अपनी बात और विचारों को हिम्मत के साथ रखने का सलीका सिखाया जाए और उनकी हिचक दूर की जाए। कविताएं, गीत, गजल और अन्य प्रस्तुतियों के माध्यम से उनकी छिपी हुई प्रतिभा को तलाशा जाए। लेकिन शहरी क्षेत्र के बच्चों को बस्ते के बोझ ने इतना झुका दिया है कि उसे पढ़ाई के अलावा अपनी काबिलियत को दिखाने का मौका नहीं मिल रहा है, क्योंकि उसके माता-पिता ने उसे चिकित्सक, इंजीनियर सहित कई बड़े पदों पर बैठने का सपना दिखा दिया है। अपने पैरों पर खड़ा होने की जरूरत एक बेहतर स्थिति है, लेकिन बच्चों को सभी गुणों को अंगीकार करके खुद को हर गतिविधि में आगे आने का मौका कभी गंवाना नहीं चाहिए।