मौजूदा दौर में महामारी के बीच ध्यान नए सिरे से कई ऐसी चीजों की ओर गया है, जो वैसे तो आमफहम मानी जाएंगी, पर जिनकी महत्ता अपने आप में बड़ी होती है। इन्हीं में से एक है भोजन पकाने की सुगंध। दरअसल, वह भोजन का आश्वासन है और भोजन जीवन को चलाने वाली चीज है।

कोरोना काल में बहुतों के लिए रोटी और मकान एक बड़ा अभाव बन गए। कपड़े भले थोड़े बहुत तन पर रहे हों, भोजन पकने की सुगंध बहुतोंको मीलों चलने के बाद मिली। उसके पकने की सुगंध से जीभ पर एक स्वाद तो आता ही है, जीवनी शक्ति का एक आगमन भी मालूम पड़ता है। भला कब हमने घर में या कहीं अन्यत्र पक रही अपनी किसी प्रिय चीज को ‘दूर’ से ही पहचान नहीं लिया, उसकी सुगंध मात्र से।

अब तो शहरों-महानगरों में सब्जियों में वैसी सुगंध न होने की शिकायत अक्सर की जाती है, ठीक ही; क्योंकि वहां तक पहुंचने में उनकी ताजगी भला बरकरार कहां रहती है! फिर अब उन्हें उगाने की वैसी शुद्धता भी कहां रही। रासायनिक खादों आदि के बढ़ने से, कीटनाशकों के छिड़काव से, उनमें स्वाद वैसा स्वाद, जो पहले होता था, आ भी नहीं सकता!

हां, आर्गेनिक खेती की बात जरूर होती है, उससे उगाई जाने वाली चीजें भले सब तक न पहुंच पाती हों। जो भी हो, कुछ पकेगा तो कोई ‘महक’ अच्छी बुरी आएगी ही! ‘क्या पक रहा है’ का जो मुहावरा बना है, वह वैसे ही तो नहीं बन गया। चीजें अब भले उतनी शुद्ध न मिल रही हों, उतनी ताजा; पर, उनमें से सुगंध का लोप तो नहीं ही हो गया! सो, भिंडी आज भी पकते हुए ‘भिंडी’ तो लगती ही है, कुछ न कुछ!

यह अलग बात है कि उसमें से उठती सुगंध अब मुझे वैसी नहीं लगती, जैसी बचपन में गांव वाले घर में, वह उठा करती थी, जब चौके में चूल्हे की आंच पर वह पकती थी! यह भी कुछ ‘कमाल’ की बात मानी जाएगी कि खाने की किसी वस्तु के साथ, कई और चीजों की महक भी हम अपने अनुमान में ले आते थे। इसलिए दूर से ही भिंडी पकने की महक के साथ अरहर की दाल की महक और आलू-चोखे की महक भी तैर ही आती थी। चावल पकने की भी। यह जो खाने की चीजों का ‘कॉम्बिनेशन’ है, उसकी अपनी एक अलग मिली-जुली महक भी होती ही है।

भोजन-पारखी और भोजन-रसिक भी सुगंध को अत्यधिक महत्त्व देते हैं। सच पूछिए तो पक जाने के बाद भी जिस चीज में सुगंध बची रह जाए, उसी को सुस्वाद और अच्छी तरह पकाया गया भोजन मानते हैं। अब अगर खाते वक्त भी भिंडी की सुगंध न बची रहे और अरहर की दाल भी अपनी सुगंध के साथ मुंह में प्रवेश न कर रही हो तो खाने का वह आनंद ही कहां बचा, जो इन्हें खाते वक्त भी मिलना चाहिए।

इसके अलावा, उबाली जाने वाली चीजों की भी अपनी एक प्रिय सुगंध होती है। उबलते हुए दूध से सुगंध न उठे तो बेकार है। यहां तक कि उबाले जा रहे आलू की भी सुगंध होती है, उनके छिलके के कारण। जब चावल उबल रहे हों ‘भात’ होने की दिशा में तो उनसे उठने वाली सुगंध, हमें उनकी ओर कितना मोड़ देती है! शाम या सुबह की सैर के वक्त जहां भी रहा हूं, किसी घर से कुछ पकने की कोई ‘प्रिय’ सुगंध मिली है तो अच्छा लगा है। सिर्फ‘दाने-दाने पर लिखा है खाने वाले का नाम’ से ही बात पूरी नहीं हो जाती; ‘सुगंध’ में भी उसे ‘पाने’ वाले का हिस्सा है।

पर जिनका भोजन आमतौर पर हर समय सुरक्षित रहता है, उनसे अलग एक संसार उनका भी है, जिनको भोजन छिन जाने की आशंका बनी ही रहती है। बाढ़ और सूखे वाले इलाकों के बारे में जब भी सोचता हूं तो लगता है कि भोजन तक पहुंचने से पहले उनकी सुगंध तक भी लोगों का पहुंचना कितना कठिन है। हाल में असम और बिहार की बाढ़ के समय ऐसे ही कुछ दृश्य देखने को मिले।

एक तस्वीर में मुजफ्फरपुर जिले में आई बाढ़ में एक व्यक्ति कंधे तक पानी में डूबा था और दोनों हाथों में एक गैस सिलेंडर उठाए हुए तैरता-सा चला जा रहा था। बाढ़ के दृश्यों में लोग किसी ऊंची जगह पर थोड़े बहुत सामान के साथ भोजन पकाते हुए दिखे, क्योंकि घर तो उनका पानी में आधा या पूरा डूब चुका था।

भोजन की सुगंध उसके पकने-परोसे जाने की सुगंध बनी रहनी चाहिए। यही कामना और प्रार्थना मन में जागती है। प्रसंगवश नागार्जुन की एक कालजयी कविता की पंक्तियां भी याद आ रही हैं- ‘कई दिनों तक चूल्हा रोया, चक्की रही उदास/ कई दिनों तक कानी कुतिया सोई उसके पास/ कई दिनों तक लगी भीत पर छिपकलियों की गश्त/ कई दिनों तक चूहों की भी हालत रही शिकस्त/ दाने आए घर के अंदर कई दिनों के बाद/ धुआं उठा आंगन से ऊपर कई दिनों के बाद/ कौवे ने खुजलायी पांखें कई दिनों के बाद!’