भारत में विवाह एक प्राचीन व्यवस्था है, लेकिन शहरीकरण और तकनीकी बदलाव ने इसे बदल दिया है। दुनिया में 1950 से कंप्यूटर तकनीक का प्रसार होने लगा था, मगर 1970 के दशक से इसके प्रसार को गति मिली। कंप्यूटर की दुनिया ने समाज और कार्य करने के तरीके को थोड़ा बदला। फिर 1980 के दशक से देश में टेलीविजन के विस्तार ने सामाजिक बदलाव को तेज किया। दहेज प्रथा का विरोध करते-करते टेलीविजन खुद दहेज का आवश्यक अंग बन गया। शादी को आधार बना कर ‘दिलवाले दुल्हनिया ले जाएंगे’, ‘नदिया के पार’, ‘हम आपके हैं कौन’ जैसी कुछ फिल्मों ने अच्छी कमाई की तो समाज में शादियां भी फिल्मी अंदाज में होने लगीं। मोबाइल और इंटरनेट ने पर्दा प्रथा, सोने-जागने के समय से लेकर फैशन, मनोरंजन और परंपरागत मूल्य बदल दिए। गांव में शादी एक सामूहिक उपक्रम से पारिवारिक उत्सव में बदल गई। शहर-कस्बों में धनी लोगों ने शादी में महंगे मंच बनवाने, मुंबई के कलाकारों का स्टेज शो कराने, अपने परिवार के लोगों को पेशेवर नृत्य-शिक्षकों या निर्देशकों से डांस सिखाने का चलन शुरू किया। जब किसी भी हाई प्रोफाइल शादी की फोटो, इंस्टाग्राम, फेसबुक पर उपलब्ध होने लगी तब छोटे शहरों और गांव-कस्बे में भी हर संभव उनकी नकल होने लगी। ब्यूटी पार्लरों की बढ़ती मांग गांव-देहात तक पहुंच गई।

शादी में होने वाले परंपरागत नाच और गायन को पहले ऑर्केस्ट्रा ने, फिर वीडियो फिल्मों ने खत्म किया। अब स्मार्ट फोन से लोग दूल्हा-दुल्हन की तस्वीरें लेकर तुरंत फेसबुक पर पोस्ट करते हैं। ड्रोन कैमरे से फोटो लिए जा रहे हैं या वीडियो रिकॉर्डिंग की जा रही है। दूल्हा-दुल्हन भी इंस्टाग्राम-व्हाट्स ऐप पर अपना स्टेटस डालते हैं। हमारे बचपन में गांव में शादी-विवाह एक सामूहिक जिम्मेदारी होती थी। महीनों पहले से गेहूं-चावल आदि को बीन-फटक कर तैयार किया जाता था। शादी की तैयारी के दिनों से महिलाएं गीत गाना शुरू कर देती थीं। गीतों में विविधता रहती थी और शादी के दिन के गीत अलग-अलग मौके जैसे- परिछन, द्वारपूजा, खिचड़ी खवाई, विदाई आदि के हिसाब से गाए जाते थे। उत्तर भारत के ग्रामीण इलाकों में 1970 के दशक तक बारात तीन दिन तक रुकती थी। 1980 में दूसरे दिन बारात विदाई का रिवाज चला। आमतौर पर गांव में बारात का इंतजाम स्कूल प्रांगण या खलिहान में होता था। मोबाइल फोन नहीं था तो लोग आपस में संवाद करते, एक दूसरे के बारे में जानते और दोस्तियां होती थीं।शादी के लिए ‘विवाह भवन’ का चलन पिछले दो दशकों के दौरान ही बढ़ा। पहले शादी-ब्याह के मौके के लिए गांव में लोग पड़ोस के दूसरे घरों से गद्दा-बिछावन, चौकी-खटिया मांगते थे। बस एक-दो हलवाई खाना बनाने आते थे। पूरी बेलने, सब्जी काटने आदि का काम घर की या रिश्तेदारों में से आईं महिलाएं करती थीं। कुछ पुरुष भी इसमें सहयोग करते थे। ज्यों-ज्यों गांव में सामूहिकता का अभाव होता गया, टेंट हाउस का व्यापार बढ़ता गया। अब कोई किसी से चौकी-खटिया नहीं मांगता। बर्तन-कुर्सी- सब कुछ टेंट हाउस वाले ले आते हैं। अब गांव भी मेहमान की तरह आता है, शादी देखता है, खाता है और चला जाता है।

मोबाइल फोन, इंटरनेट और सोशल मीडिया ने संबंधों की परिभाषा बदली है। उधर गांव में अब शादी कराने वाले ‘अगुआ’ नहीं रहे। वह पीढ़ी लगभग खत्म हो गई। अब अखबारों में ‘मैट्रिमोनियल’ आता है, जिसमें रिश्ते ही रिश्ते का विज्ञापन होता है। शादी के लिए वेबसाइट की भरमार है। ऐसे बदलाव के बीच कुछ पारिवारिक मित्रों की मदद से दिल्ली में रहने वाले दो परिवारों के बीच लड़के-लड़की की शादी को लेकर बात चली। दोनों मध्यमवर्गीय परिवार अभी भी गांव से ताल्लुक रखते हैं और परंपरा-आधुनिकता का संतुलन बनाने की कोशिश करते हैं। तो सीधे मिल कर शादी की बात हुई। यह तय हुआ कि लड़का और लड़की एक दूसरे से मिल लें। लड़के वाले लड़के को लेकर और लड़की का परिवार लड़की को लेकर एक मॉल में आए। फिर लड़का-लड़की एक कॉफी की दुकान में चले गए। एक घंटे के बाद दोनों वापस आए और अपने-अपने परिवारों के साथ घर चले गए। लड़की के परिवार के बीच उत्सुकता थी कि क्या निर्णय हुआ। कुछ पता नहीं चला। फिर अगले दिन लड़की के मामा ने लड़के के घर फोन किया। जवाब मिला कि हमारा परिवार तो चाहता है कि शादी आपके यहां हो। लड़की वालों ने संतोष की सांस ली। लड़के वाले कुछ दिनों के लिए बाहर चले गए। लड़की वालों ने लड़के के घर एक-दो बार फोन किया तो किसी ने नहीं उठाया। कुछ दिनों तक संवाद नहीं हुआ। फिर सोशल मीडिया पर एक दिन लड़के की बहन ने पोस्ट किया- ‘मिल गई मेरे ब्रदर की दुल्हन’! वहां लड़के के साथ काम करने वाली किसी दूसरी लड़की की फोटो थी। फिर लड़की वालों को कुछ और पूछने की जरूरत नहीं रही, क्योंकि दुनिया में अब आधी से अधिक आबादी ऑनलाइन हो चुकी है और विश्व में करोड़ों लोग सोशल मीडिया का इस्तेमाल कर रहे हैं।