पल्लवी विनोद

पता नहीं, कबसे भाग रहा हूं। फिनिशिंग लाइन तो कबकी निकल चुकी, फिर भी भागा जा रहा हूं। मेरे पैरों की मांसपेशियों में खिंचाव आ गया है। लेकिन कदम थम नहीं रहे हैं।’ वह अपने डाक्टर से कह रहा था। वह पहली बार मनोचिकित्सक के पास आया था। डाक्टर ने उससे उसके बचपन की खूबसूरत यादों के बारे में पूछा, तो उसने उन सभी पलों के बारे में बताया जब उसने कोई प्रतियोगिता जीती थी या अव्वल आने पर सम्मान मिला था।

डाक्टर ध्यान से उसका चेहरा देख रहे थे। उन्होंने उसे उसके जवानी और दोस्तों से जुड़ी यादों के बाबत पूछा, तो उसने कहा मैं विश्व के उत्कृष्ट विश्वविद्यालय में था, जहां पहुंचने का सपना मैंने बचपन से देखा था। एक-दो दोस्त थे, लेकिन मेरी पढ़ाई और मेरा क्षेत्र मुझे समय बर्बाद करने की इजाजत नहीं देते थे। मैंने अपने सपने से ही दोस्ती भी की और मोहब्बत भी।

डाक्टर अब उसके परिवार के बारे में पूछ रहे थे। उसके चेहरे पर विफल दाम्पत्य की रेखाएं उभर आई थीं, हालांकि बेटे की उपलब्धियों की चमक ने उन रेखाओं को हल्का कर दिया था। डाक्टर ने उसे कुछ दिनों की छुट्टी लेकर परिवार के साथ बाहर घूमने की सलाह दी, मगर उसने मना कर दिया। उसकी कंपनी का दायित्व उसके ही कंधे पर था, ज्यादा दिनों की छुट्टी मिलना संभव नहीं था। उसने डाक्टर से दवाइयां मांगी और अगले हफ्ते फिर मिलने का वादा कर निकल पड़ा।

जिस व्यक्ति ने जीवन में सफलता के अलावा कोई और लक्ष्य निर्धारित ही नहीं किया, वह अपने कदम को कैसे थामे? हमारे आसपास कुकुरमुत्ते की तरह उगते कोचिंग संस्थान, बोर्ड के शत-प्रतिशत रिजल्ट, प्रतियोगी परीक्षाओं में सफल होने वाले अभ्यर्थियों की तस्वीरों से पटे अखबार समाज में सफलता का एक नया खाका खींच रहे हैं। आखिर यह सफलता क्या है? प्रतिष्ठित संस्थानों से शिक्षा या लाख के आगे बढ़ते शून्य से सजी-धजी नौकरी पाना! या विदेशों में जीवन यापन करना!

यह साल बीतने को है, लेकिन यह साल हमारी जिंदगी से कभी नहीं जा पाएगा। इसने हमें सोचने को मजबूर किया है कि आखिर किस दौड़ का हिस्सा बन गए हैं हम सब? जब जरूरत पड़ी, तो हमारा बैंक बैलेंस भी हमारे अपनों को बचा नहीं पाया। पांच सौ वर्ग मीटर में बने मकान भी किसी जरूरतमंद को घर नहीं बुला सके। मैं नहीं कहती कि जीवन जीने के लिए ये सब चीजें महत्त्वपूर्ण नहीं हैं।

लेकिन इन चीजों से ज्यादा महत्त्वपूर्ण हमारा जीवन है, जो हमारे आज में है। जिन बच्चों की अच्छी शिक्षा और विदेशों में बसने का सपना हम ताउम्र देखते रहे, आखिरी वक्त में हम उनका चेहरा भी नहीं देख पाए। हां, कहने को यह आपदा काल था, हमेशा ऐसा थोड़े ही होता है, लेकिन जिन पलों को हमने जीवन की आपाधापी में यों ही जाने दिया, वह समय भी वापस कहां आता है। आखिर यह कौन-सी सफलता है, जिसने हमें अपनी जड़ों से अलग कर दिया। हम अपने ही बागों से निकाले गए वे पौधे हैं, जो पूरी जिंदगी इसी कोशिश में लगे रहते हैं कि दूसरों की जमीन में हम ठीक तरह से खड़े हो जाएं।

हमारे पास बचपन की यादों में दादी-नानी की कहानियां हैं। चचेरे, ममेरे भाई-बहनों के साथ की गई शैतानियां हैं। हमारे दोस्त दिन भर हमारे घर या हम उनके घर रहा करते थे। हमारा दोस्त जब रेस का हिस्सा होता था, तो सबसे ज्यादा तालियां बजा कर उसका उत्साहवर्धन करने वाले हाथ हमारे होते थे। घर में अचानक आई आर्थिक समस्याओं पर हमारे खर्चों में कटौती कर दी जाती थी और हमारे ही गुल्लक फोड़े जाते थे। अचानक आए रिश्तेदार हमारे लिए बोझ नहीं, खुशी का कारण बनते थे। घर-परिवार हमें मानसिक और सामाजिक दबाव झेलने का अभ्यस्त बनाता था।

हम जानते थे कि संयुक्त परिवार में होने वाले मनमुटाव क्षणिक होते हैं। मगर हमने अपने बच्चों को इन सब चीजों से दूर कर दिया। नंबरों की रेस में दौड़ते बच्चों की सफलता उनका रैंक और नौकरी बन गई। हम उन्हें समझाना भूल गए कि इस कामयाबी की खुशी क्षणिक है, असली खुशी तो परिवार और दोस्तों के साथ समय बिताने में मिलती है। अपने हर काम के लिए मशीन पर निर्भर होता मानव कब मशीन बन गया, पता ही नहीं चला! जब पता चला तो जीवन का एक हिस्सा गुजर चुका था या किसी अपने का हाथ छूट चुका था।

आपको नहीं लगता कि अब थोड़ा ठहरने का वक्त आ गया है। न रुक पाएं तो चाल ही धीमी कर लें। अपने जीवन का लक्ष्य निर्धारित करना सिर्फ हमारे हाथ में है। पीढ़ियां कितनी भी बदल जाएं, लेकिन जीवन की मंजिल एक ही है। यह आप पर निर्भर करता है कि उस तक जाने वाले खूबसूरत रास्तों को देखते हुए जाना है या दौड़ते हुए।