शैशव में पढ़ी, मन में बहुत गहरे छिपी बैठी कुछ कविताएं मौका पाते ही जेहन में उभर आती हैं, मानो बरसात की बूंदें पाकर अनायास उग आई घास हो या गरीबी में कुछ पैसों का जुगाड़ होते ही मन को घेर लेने वाली ढेर सारी अतृप्त इच्छाएं। मानसून की अगवानी करती बौछार के बाद बेतरतीब पनप आई घास को देख कर शैशव में पढ़ी पंक्तियां याद आती हैं- ‘यह हरी घास लहलही घास, बिछ रही घरों के आसपास।’
घास नटखट है। समझदार राही को भी दिग्भ्रमित कर देती है। सत्रहवीं शताब्दी में ‘हरित भूमि तृण संकुलित, समझु परे नहीं पंथ’ वाले बिंब के माध्यम से गोस्वामी तुलसी दास ने विकल्पों से जूझते व्यक्ति की मनोदशा का बयान किया था। लेकिन इसके विपरीत सोलहवीं-सत्रहवीं शताब्दी के इंग्लैंड में भव्य दुर्गों (कैसल्स) के सामने लंबे-चौड़े घास के मैदान लगाने की परंपरा नितांत व्यावहारिक थी।
हरे-भरे पेड़ लगाए जाएंगे तो शत्रु छिपता-छिपाता पास तक आ जाएगा, लेकिन हरी घास के लंबे-चौड़े मैदानों से घिरे कैसल के प्रहरी उसे दूर से ही ताड़ सकेंगे। भारत में उपवनों की परंपरा तो थी, लेकिन हरी घास के मैदान के चाहने वाले नहीं थे। यूरोपीय जलवायु में घास के साल भर लहलहाते रहने के लिए समुचित वर्षा थी, कम आबादी के कारण लंबे-चौड़े चरागाह थे।
उनमें चरती भेड़-बकरियां घास को इतनी छूट नहीं देती थीं कि राही को पंथ न सूझे। हरे-भरे मैदानों की खूबसूरती पर इटली के लैंडस्केप चित्रकार इतना रीझे कि वह इतालवी चित्रकला का विशिष्ट अंग बन गई। इंग्लैंड में लान की खूबसूरती पर आधारित उद्यानों का जादू अठारहवीं शताब्दी के फ्रांस में वैभव के प्रतीक प्रासादों के सिर पर चढ़ कर बोला। फिर तो अमेरिका ने भी नकल की। भारत में मुगल स्थापत्य कला ने भव्य इमारतों के चारों तरफ हरी घास के मैदान और फलों के वृक्षों से तो सजाया, लेकिन हमारे यहां निजी आवासों को लान से सजाने की शैली उपनगरीय आवासीय व्यवस्था के साथ ही आ पाई।
आज हमारे देश में बढ़ती आबादी से त्रस्त शहरों में आवासीय भूमि की कीमतें आसमान छू रही हैं और घास के मखमली गलीचों से घरों को सजाना दुष्कर हो गया है। जो उच्च और मध्यवर्गीय लोग निजी आवास के छोटे से लान में घास की विभिन्न किस्मों जैसे दूब, अरुगु, मेक्जिकन घास आदि के चुनाव को लेकर सलाह मांगते थे, अब पेय जल की भीषण कमी के कारण घास के प्रति मोह को लेकर अपराध भावना महसूस करते हैं। जब पीने का पानी बोतलों में बिक रहा हो, और नहाने का विकल्प डीओडरेंट में तलाशा जा रहा हो, तब केवल आंखों को राहत और तलवों को स्निग्ध स्पर्श देने के लिए हरी घास को सींचने की कौन सोचे।
ऊपर से दूब के साथ बिन बुलाए मेहमान की तरह आने वाले खर-पतवार, जिससे निबटने वाले कीटाणुनाशक के प्रयोग को लेकर भी पर्यावरणविद शंकित रहते हैं। पालतू जानवरों से लेकर धमाल मचाते बच्चों तक, हरी घास के सौ दुश्मन हैं। वक्त के साथ कदम मिला कर चलने वाले अब सिंथेटिक (कृत्रिम) घास के गुणग्राहक बन रहे हैं। खरीदो, बिछाओ और भूल जाओ। निजी आवास से लेकर खेल के मैदानों तक कृत्रिम घास कृत्रिम मुस्कराहट, कृत्रिम दोस्तियों और कृत्रिम रिश्तों की तरह पसरती जा रही है। ऐसे में बरसात की बूंदों के साथ जवानी की उमंग की तरह खुद-ब-खुद फूट पड़ने वाला तृणमूल एक झूठा दिलासा ही तो है।
विस्तार और खुलेपन की तलाश में निकली अज्ञेय की कविता ‘हरी घास पर क्षण भर’ में आमंत्रण था- ‘आओ बैठें, इसी ढाल की हरी घास पर… माली, चौकीदारों का यह समय नहीं है/ और घास तो अधुनातन मानव मन की भावना की तरह/ सदा बिछी है हरी/ न्योतती कोई आकर रौंदे।’ इस खुले निमंत्रण में हरी घास के रौंदे जाने का दर्द तो था, लेकिन अज्ञेय उसे विद्रोह के लिए नहीं उकसा पाए। हरी घास के तेवर को बदलते देखा, तो नरेश सक्सेना ने- ‘जो बिछी रहती है धरती पर और कुचली जाती है लगातार/ अचानक एक दिन महल की मीनारों और किले की दीवारों पर शान से खड़ी हो जाती है/ उन्हें ध्वस्त करने की शुरुआत करती हुई।’
कवयित्री वर्षा का प्रश्न जितना निरीह लगता है, उतना है नहीं- ‘खर पतवार का क्या कीजिए/ जो खा गई है चरागाह/ जिसका होना भी हवाओं में जहर फैलाता है/ घास का उग जाना तो फिर भी ठीक है/ पर खर पतवार?’ सोचिए जरा, ये खर-पतवार कौन हैं? घरों के आसपास बिछी लहलही घास से प्रफुल्लित मन को इन कवियों के साथ हरियाली से फूटती चिंगारियों तक पहुंचते देख कर मैं स्तब्ध हूं। बस इतना कहें कि ‘हरे शजर (वृक्ष) न सही, खुश्क घास रहने दो/ जमीं के जिस्म पे कोई लिबास रहने दो।’