अशोक सण्ड
शब्दों को पकड़ना और फिर परोसना भी एक कला है। एक ऐसी कला जो मुरझाए और सिकुड़े फेफड़ों में सांस फूंक सकती है, सुनने वाले दिमाग को जिधर चाहे घुमा सकती है, सच को झूठ और झूठ को सच स्थापित कर देती है। भाषण की संज्ञा विभूषित इस कला को साधना हर किसी के वश का नहीं। जिस प्रकार स्थितियां बदलने पर केश की संज्ञा बदल जाती है, उसी मानिंद होते हैं इसके स्वरूप। कहीं उपदेश, कहीं व्याख्यान कहीं प्रवचन और विशेष अवसर पर अभिभाषण। ‘राष्ट्र के नाम संदेश’ इसका सर्वोत्तम स्वरूप। राजनीतिक भाषणों से देशवासी भली-भांति परिचित हैं। लहलहा उठती है भाषणों की फसल चुनाव के समय। बल्कि चुनावों के दौरान बहुत सारे नए भाषण देने वाले लोग सामने आते हैं और जनता को अपने पक्ष में मोहित करने की कोशिश करते हैं।
राजनीतिक दलों ने भी शायद जनता के श्रोताभाव के मनोविज्ञान को समझ लिया है, इसलिए वे ‘सबसे अच्छा भाषण’ देने वाले वक्ता को जनता के बीच भेजते हैं। लेकिन इसमें खतरा यह है कि कहीं वह ‘सबसे अच्छा भाषण’ देने वाला वक्ता पार्टी की छवि पर हावी न हो जाए। ऐसे में जिन नेताओं को पारंपरिक सहारे से पद और कद मिला है, उनके लिए समस्या खड़ी हो सकती है। इसलिए अच्छा भाषण देने वालों को पार्टी में कुर्सी देने को लेकर सावधानी बरती जाती है। इस बीच भाषण से ही यदा-कदा बोध कराया जाता है कि जनतंत्र खतरे में है। भाषण के दौरान आक्रोश और विद्रोह उभारे जाते हैं। इसके बरक्स साहित्यिक और सामाजिक भाषण बंद कमरों तक सीमित रहते हैं। उधर धार्मिक टाइप की तो बाकायदा दुकानें हैं। ‘सत्संग’ की इन दुकानों में महिलाओं की खासी भीड़ रहती है।
जनतंत्र में बोलने की भी आजादी है। खुलकर, खोलकर कही जाती है अपनी बात। जाहिर है राजनीतिक भाषण के विषय नहीं होते, इसमें अपने दल की बहबूदी और विरोधी की चीर-फाड़ से बोध कराया जाता है। वे जो बोले सच बाकी मिथ्या। दैहिक भाषा और लहराते हाथ बीच-बीच में प्यारे शवासियों… मित्रों… और भाइयों और बहनों आत्मीयता का छौंका बघारते संबोधन श्रोताओं के वशीकरण में सहायक। जब तक दिल न भर जाए तब तक कहो। गला सूखे तो पानी का इंतजाम पहले से। मुंह के आगे माइक और सामने मुंह ताकते श्रोता, तब क्यों किसी को निराश किया जाए। दूसरी श्रेणी वाले सामाजिक भाषण आमतौर पर सामाजिक संस्थाएं ही आयोजित करती हैं, जिनके संरक्षक मंच और माइक दोनों अपने पास रखते हैं।
संस्थाओं से जोंक की तरह चिपके रहने वाले ऐसे जातक इसी फिराक में रहते हैं कि कब मौका मिले और कब उन्हें कोई बुला ले। सिर पर ‘मोस्ट सोशल’ सबसे ज्यादा सामाजिक होने की धुन। जहां तक धार्मिक भाषणों का प्रश्न है, पंडितों, पुरोहितों और साधु समाज के प्रति लोगों की श्रद्धा का सूचकांक घट रहा है। धर्म में लोगों की उदासीनता के चलते उपदेश का काढ़ा कम ही रुचिकर लगता है, जबकि धार्मिक प्रवचन वालों की अपनी श्रोता मंडली और उनके अपने मठ-मंदिर होते हैं।
उधर साहित्यिक भाषणों के श्रोता सीमित होते हैं। यहां भाषण चोला बदल व्याख्यान की गति को प्राप्त होते हैं, जहां विद्वान कम, अखाड़ेबाज अधिक। गाली-गलौच, चीखने-चिल्लाने, अभद्र होने की गुंजाइश नहीं के बराबर। व्यंजना से चल जाता है काम। यह साहित्यिक हुनर ही है कि जहां ‘दो शब्द’ के नाम पर हजारों शब्द आराम से ठेले जाते हैं। दो शब्द तो आदरणीय, परम आदरणीय श्रद्धेय के संबोधन में ही खर्च हो जाते हैं। श्रोता के ‘सरौता’ बन ‘बैठ जाइए… बैठ जाइए’- की चिल्लाहट के बावजूद असली भाषणबाज वही जो विरोध के स्वर में भी अपनी तूती बजाता हिमालय की तरह अडिग रह अपने रससिक्त वाक्चातुर्य का काढ़ा पिला अपना लटका उल्लू सीधा कर ले।
इस कला का जन्म कब और कहां हुआ, यह शोध का विषय है। यों इतना सुनिश्चित है कि मनुष्य ने जब से बोलना सीखा होगा, तभी से थोड़ा-थोड़ा भाषण देना शुरू किया होगा। इतिहास पलटने पर राजनीतिक भाषण के उतार-चढ़ाव में एक सांगीतिक यात्रा का बोध होता है। देश के पहले प्रधानमंत्री रहने के काल में जो दरबारी कांगड़ा हुआ बाद के दिनों में विहाग की गत। जनता पार्टी वाले काल खंड में भाषण यकायक भजन प्रार्थना हो गया था। कालांतर में इसके सुर हमने देखा है। ‘हम देखेंगे…’ की टेक के साथ ‘मियां की तोड़ी’, जो बाद में पूरे दस साल विलंबित सुर में मद्धम-मद्धम कानों में गुंजायमान रही।
इन दिनों के भाषण में श्रोताओं को ‘शुद्ध कल्याण’ का बोध कराया जा रहा है। हर किसी में नहीं पाई जाती भाषण देने की कलाकारों वाली क्षमता। कदाचित इसी कारण लिखित भाषणों का सहारा लेना पड़ता है उन्हें। इस कला में प्रवीण और विशारद आते ही मंच पर जम जाते हैं। मंचासीन होते ही तमंचासीन हो जाती है जुबान। बीच-बीच में तालियों की गड़गड़ाहट फेफड़ों का आॅक्सीजन स्तर बढ़ाती है। भाषण डिजिटल हो इन दिनों प्रवचन की गति को प्राप्त। जिसकी पहली खुराक अलसुबह बजरिए आइ ड्राप यानी आंख में डालने वाली दवा हर फोनधारी की आंख में यार-दोस्त डाल रहे। है किसी में साहस जो कह सके कि हमें भाषण न पिलाइए..!

