आलोक रंजन
सब कुछ अपनी गति से चल रहा था और अचानक एक वायरस ने जैसे चलती-फिरती दुनिया को रोक दिया। इस रोक का असर यह हुआ कि हमारा बाहर निकलना तक दूभर! सड़क पर आना-जाना पुलिस वालों की निगरानी में होने लगा। जाहिर है, अत्यंत जरूरी न होने की अवस्था में वे किसी को बाहर नहीं ही जाने देते। एकाएक यात्राएं रुक गईं, पर्यटन थम गया। फिर इससे जुड़ा एक बड़ा उद्योग देखते-देखते तबाह हो गया। नौकरियां खत्म और संस्थाएं बंद होने के कगार पर आ गईं। जब पूर्णबंदी हुई थी तब उम्मीद थी कि थोड़े दिनों की बात है।
उसके बाद सब कुछ फिर से पहले जैसा हो जाएगा। लेकिन घरबंदी के दिन बढ़ते गए और घर से निकलना दूभर होता गया। जो हमेशा निरंतर नई जगहों की खोज में रहते हों, उन्हें उम्मीद भी नहीं बची कि कब वे बाहर निकल पाएंगे और कब कोई यात्रा हो पाएगी। मैं अपने स्कूल के बाहर वाली सड़क पर खड़ा होकर सूनी सड़क को निहारता और हर दस मिनट में गुजरने वाली पुलिस की गाड़ी के आने से पहले भीतर आ जाता। सूनी सड़क को निहारना ही मेरी यात्रा थी और पुलिस की गाड़ी गतिशीलता की शायद अंतिम पहचान।
सब कुछ इतने पर सिमट आया था। एक नैराश्य और अवसाद भरता जा रहा था। ऐसा बंधन कभी महसूस नहीं किया था। नए प्रकार के अवसाद से जूझना सीखना था। फिर वह दिन भी आया, जब घरबंदी में ढील दी गई। मैं अपनी बाइक लेकर निकल पड़ा पास की नदी के किनारे। उस दिन सड़क पर चलने में किसी चलना सीख रहे बच्चे जैसा महसूस हो रहा था। आसपास को महसूस करने और नए सिरे से उस परिचित रास्ते को नए संदर्भों में देखना एक नया अनुभव था। नदी वही थी, पानी का रंग भी वही।
आसपास फुदकते पंछी भी वही, लेकिन बंधन से निकल कर बाहर आने का जो सुख था वह वर्णन के बाहर! कई दिनों तक घर की हद में सीमित रहने से जो निराशा भर चुकी थी, वह छंटने लगी। सुरक्षित, लेकिन किसी चारदिवारी के भीतर रहने की आजादी की मनोवैज्ञानिक परतों का एहसास करीब से हो रहा था। ऐसा लगता मानो सुरक्षित हूं, लेकिन एक आशंका और परोक्ष दबाव और बंधन के बीच। इसके विश्लेषण के लिए थोड़ा वक्त और नई पद्धतियों का सहारा लूंगा कि दिमाग से आजादी महसूस करने के लिए किन तत्त्वों की जरूरत होती है और क्या-क्या उसे ऐसे अनुभवों से वंचित करते हैं। खैर, तमाम सुरक्षा उपायों को ध्यान में रखते हुए निकलना शुरू हुआ, लेकिन दिक्कतें अब भी थीं। कहीं दूर आना-जाना मुश्किल था, क्योंकि कोई न कोई स्थान संक्रमण के कारण बंद ही रहता।
उन्हीं दिनों मैंने आसपास के स्थानों को नए सिरे से जानने की कोशिश की और तभी मैंने जाना कि आसपास घूमना हमेशा देखे हुए को देखना या खोजे गए को ही जानना नहीं होता। एक शाम एक झरने के पास बैठा था और एक व्यक्ति ने बताया कि सड़क से नीचे नदी की दिशा में बढ़ने पर एक गुफा आती है। वह गुफा कैसे बनी, सबसे पहले वहां कौन रहते थे और अब कोई आता-जाता है या नहीं, यह सब पूछने से पहले ही उस व्यक्ति ने बताया कि वहां कभी-कभार हाथियों का झुंड आराम करता पाया जाता है।
इसलिए बहुत सावधान होकर दिन के उजाले में जाने की जरूरत है। अगले दिन मैं उस गुफा को देखने पहुंच गया। वहां का नजारा अद्भुत था। ठीक उसी समय पता चला कि आप बाहर कितना भी घूम-फिर लीजिए, लेकिन आपका पड़ोस आपके लिए कुछ न कुछ ऐसा बचा ही लेता है, जो आपको नए सिरे से रोमांचित कर दे। अब मैं मौजूदा दौर में बाहर निकलने की शर्तों को पूरा करते हुए इधर-उधर जाने लगा। इस तरह की यात्राओं ने उस नैराश्य से बाहर निकाला जो घरबंदी के दौरान घर कर गई थी।
उन दिनों जब मन घर में ही कैद रहने के कारण झुंझलाहट से भरा रहता था और घूमने-फिरने की उम्मीद कहीं नजर नहीं आती थी, तब की स्थिति और आज में बड़ा परिवर्तन आ चुका है। अभी भी हालात बहुत बदले नहीं हैं। लोग फूंक-फूंक कर कदम बढ़ा रहे हैं। होटल आदि डर-डर कर ही खुल रहे हैं। स्थिति सामान्य होने में पता नहीं, कितना वक्त लग जाए।
इन सब नकारात्मक बातों के बीच अपने आस-पड़ोस को नए सिरे से जानने-समझने का विचार काफी रोचक है। जिस गांव में हम पर पर्व-त्योहारों पर जाया करते थे वहां दो दिन की छुट्टियों में जाना उस जगह को नए सिरे से जानने के अवसर प्रदान करेगा। इससे लोगों को समझने, त्योहारों से इतर अन्य मौसमों में स्थानीयता के नए रूपों को देखने के अवसर मिलेंगे। इससे न सिर्फ हमारा अपने आस-पड़ोस से जुड़ाव बढ़ेगा, बल्कि भविष्य के लिए ऐसे स्थलों और लोगों की खोज भी हो सकेगी, जो चरम निराशा के समय हमारे लिए आसरा बनें।