लोकेंद्रसिंह कोट
रंगों की अपनी रंगत होती है। रंग हमें विविधता देते हैं। रंग से व्यक्ति, वस्तु, परिस्थिति की पहचान होती है। रंग कुछ भी कर लेने के बावजूद हमारे अंतस से जुड़े हैं। वे हमें मोहित कर सकते हैं, तो वितृष्णा से भी भर देते हैं। सफेद को जहां शांति, तो काले रंग को विरोध, शोक का प्रतीक बनाया गया है। कालांतर में रंग से मजहब भी जुड़ गए।
यह रंग का ही वैविध्य है कि वे जीवन की नीरसता को तोड़ते हैं, जीवन के स्वाद को बेस्वाद होने से बचा लेते हैं। हमें रंग भी दिए हैं तो प्रकृति ने। तमाम तरह के रंग-बिरंगे फल-फूल-पौधे, नीला आसमान, बहुरंगी इंद्रधनुष, स्वर्णिम आभा लिए सूरज, विभिन्न रंग लिए पशु-पक्षी। यहीं कहीं से लिया होता है हमने रंग। और इन्ही रंगों को अपने परिधानों पर सजा देते हैं, वंदनवारों, रंगोली, मांडणों में उतार देते हैं।
विज्ञान भी दूर नहीं रहा है रंगों से। कहता है कि प्रिज्म से गुजरने पर रंग सात हिस्सों में बंट जाता है। यहां तक कहा जाता है कि उससे सौ के आसपास रंग निकलते हैं, लेकिन हमारी आंखें उनमें से सात ही देख पाती हैं। यानी रंगों से परे भी रंग हैं। अनेक पशु तो रंग को देख ही नहीं पाते। वे रंगों के प्रति अंधे होते हैं यानी वर्णांध। ये जानवर हैं बिल्ली, कुत्ता, बैल और खरगोश। मगर मधुमक्खी, पक्षी, सांप आदि रंगों को देख-पहचान सकते हैं।
प्रकाश और रंगों का गहरा संबंध है जैसे होली और दिवाली का। बगैर प्रकाश के रंगों का कोई अस्तित्व नहीं रहता है। इस जगत में किसी भी चीज में रंग नहीं है। पानी, हवा, अंतरिक्ष और पूरा जगत ही रंगहीन है। यहां तक कि जिन चीजों को आप देखते हैं वे भी रंगहीन हैं। रंग केवल प्रकाश में होता है। रंग वह नहीं है, जो वह दिखता है, बल्कि वह है जो वह त्यागता है। आप जो भी रंग बिखेरते हैं, वही आपका रंग हो जाएगा।
आप जो अपने पास रख लेंगे, वह आपका रंग नहीं होगा। ठीक इसी तरह जीवन में जो कुछ भी आप देते हैं, वही आपका गुण हो जाता है। अगर आप आनंद देंगे, तो लोग कहेंगे कि आप एक आनंदित इंसान हैं। भौतिक स्वरूप में एक व्यक्ति जितना भोजन करता है वही उसका है, बाकी सब तो वह सिर्फ दूसरों के लिए ही करता है। कपड़े हम कहने को अपने लिए पहनते हैं, लेकिन वे होते दूसरों के लिए हैं।
जितने भी जतन हम करते हैं वह या तो परिवार के लिए होता है या फिर समाज के लिए, देश के लिए। पूरी प्रकृति सिर्फ देने के लिए बनी है। सिर्फ देने का रंग है प्रकृति के पास। हम कैसे भी हों, चाहे अच्छे या फिर बुरे, वह सबको स्वीकार करती है, उसी आकाश की तरह जो कभी किसी को नहीं दुत्कारता है। स्वीकारने का रंग भी अपने आप में गजब है।
धर्म में रंगों की मौजूदगी का खास उद्देश्य है। रंगों के विज्ञान को समझ कर ही हमारे ऋषि-मुनियों ने धर्म में रंगों का समावेश किया है। पूजा के स्थान पर रंगोली बनाना कलाधर्मिता के साथ रंगों के मनोविज्ञान को भी प्रदर्शित करता है। कुंकुम, हल्दी, अबीर, गुलाल, मेंहदी के रूप में पांच रंग हर पूजा में शामिल हैं।
धर्म ध्वजाओं के रंग, तिलक के रंग, भगवान के वस्त्रोंं के रंग भी विशिष्ट रखे जाते हैं, ताकि धर्म-कर्म के समय हम उनसे प्रेरित हो सकें और हमारे अंदर उन रंगों के गुण आ सकें। गुण वास्तव में अमूर्त होते हुए भी मूर्त होते हैं, इन्हीं रंगों के स्वरूप में। इसलिए रंगों और गुणों से परिपूर्ण हम कोई कृति या व्यक्ति देखते हैं तो अनायास मुंह से निकलता है, वाह! यही आनंद हमारे जीवन को टांकता है और नए सवेरे के लिए हमें फिर से तैयार कर देता है।
हर रंग की अपनी भूमिका है और हर व्यक्ति का अपना रंग होता है, जो उसकी अपनी पसंद का होता है। यहां तक कि रंगों की पसंद के आधार पर आपका चरित्र चित्रण करने का विज्ञान है हमारे पास। रंगों से उपचार का जीवविज्ञान भी है। मनोविज्ञान में रंगों से लेकर रागों तक से उपचार की विधियां प्रचलित हैं।
इलाज के लिए अलग-अलग रंगों के पानी की बोतलों का प्रयोग करते हैं, क्योंकि रंगों का आपके ऊपर एक खास किस्म का प्रभाव होता है। दुनिया के इस विशालकाय रंगमंच पर हर किरदार अपने रंग के साथ मस्त है। जहां संत-संन्यासी गेरुआ, भगवा या सफेद वस्त्र पहनते हैं तो समाज सेवक सफेद पहनते हैं, अभिनेता तमाम रंग-बिरंगे वस्त्र पहन कर नयनाभिराम दिखना चाहते हैं, विद्यालयों, दफ्तरों के अपने अपने रंग के परिधान, पुलिस, सेना के अलग रंग, गांव भर में मनोरंजन करते विदूषक तक का अपना रंग होता है।
यह कायनात गुलजार होती है तो सिर्फ रंगों से। रंग हैं तो उनकी रंगत भी होगी और इतनी महीन-सी होगी कि वह हमारे इस जीवन का ताना-बाना बुन देगी। इसी बुनावट में जीवन ठहरता है, उसके अस्तित्व का निर्माण होता है। इसीलिए शायद होली जैसा त्योहार बनाया गया, ताकि रंग को भौतिक स्वरूप में भी हम जी सकें।