आज ई-मेल और कूरियर के जमाने में भी डाकिये का महत्त्व कम नहीं हुआ है। अपने इस जीवन में तरह-तरह के डाकियों से काम पड़ा है। कुछ डाकिये निहायत ईमानदार, कर्तव्यपरायण और कुछ बिल्कुल विपरीत। कुछ समयबद्ध आते, उन्हें देख कर घड़ी मिलाने की इच्छा होती और कुछ उलट। एक डाकिये की याद आती है जो पूरे गांव में अकेला डाक बांटता, डाक को शहर तक लाता-ले जाता और वेतन बहुत कम पाता था। एक डाकिया तो फिल्म अभिनेता राजेश खन्ना की तरह आता। प्राचीन समय में डाक कबूतर या हरकारे लाते थे। आजकल डाक लाने, ले जाने के नए-नए उपकरण बन गए हैं, मगर जो सुख डाकिये के आने से मिलता है, वह किसी अन्य में नहीं।

ग्रामीण क्षेत्रों में डाकिये की सामाजिकता भी कई बार आपकी स्मृतियों में बनी रह जाती है। निजी या मित्रवत संबंधों से इतर ड्यूटी के दौरान पहले चिट्ठी देने के बाद संबंधित व्यक्ति के साथ देश-दुनिया के हालात पर बातों और सद्भाव का लेन-देन होता। एक पोस्टमैन महाराज ऐसे थे कि सभी स्थानों पर डाक देने के बाद मेरे यहां आते, राजनीतिक हालात की चर्चा करते और चाय पीकर जाते। एक अन्य थे जो दूर से ही आवाज लगाते और चिट्ठियां फेंक कर चले जाते। एक किस्सा बहुतों ने सुना होगा। एक विदेश गया पति रोज अपनी पत्नी को चिट्ठी लिखता और डाकिया विरहन को चिट्ठी देने पहुंचता। थोड़ा समय गुजरा, डाकिये और विरहन ने शादी कर ली। इस कथा में संवेदना और समाज की मजबूरियों की व्याख्या तो बहुत लंबी होगी, लेकिन इसमें जोड़ने और तोड़ने वाला मुख्य कारक पत्र ही है।

बहरहाल, सरकारी हो या निजी, डाकिया इस संचार युग की आत्मा है। एक डाकिया लगभग सौ किलोमीटर प्रतिदिन चलता है और सर्दी, गरमी, बरसात, बीमारी की परवाह किए बिना संदेसा लोगों तक पहुंचाता है। आज इस भौतिकवादी युग में बहुत सारे दूसरे साधन हो गए हैं और कूरियर की दुकानें खुल गई हैं। किसी कूरियर कंपनी का कर्मचारी भी पत्र देने हमारे दरवाजे पर आता है, लेकिन उसके आने से वह अहसास पैदा नहीं होता, जो एक डाकिये के आने से होता था। डाकिया पत्रों के साथ एक अपनापन लाता था, मगर आज पता नहीं क्यों कूरियर या ई-मेल के जरिए मिलने वाले पत्र हमारे भीतर कोई संवेदना पैदा नहीं कर पाते।

इसके अलावा, जहां यह डाक बचा हुआ है, उसमें मुझे एक बड़ी कमी यह लगी कि देश में मौजूद जितने भी डाकिये हैं, उनमें महिला डाकिया शायद नहीं है। दूर देस में कमाने वाले पति की चिट्ठी जब उसकी पत्नी को मिलती है और किन्हीं वजहों से वह खुद नहीं पढ़ सकती तो किसी को ढूंढ़ने लगती है। ऐसे में वह महिला डाकिया उसके लिए सुख-दुख की साथी भी हो सकेगी। हालांकि अमूमन हर हाथ में मोबाइल की पहुंच के चलते ऐसे सुख-दुख के भाव से भरे पत्रों की जगह कम होती जा रही है। फिर भी चिट्ठियों की संवेदना की तुलना मोबाइल पर दो मिनट की हड़बड़ी भरी बातों से नहीं की जा सकती।
चिट्ठी एक अत्यंत महत्त्वपूर्ण चीज है। संवाद भेजने वाले या संवाद ग्रहण करने वाले का जो भी बनता या बिगड़ता हो, लेकिन यह तय है कि डाकिये को ही इसमें संवादवाहक बनना पड़ता है। चिट्ठी को गंतव्य तक पहुंचाने में डाकिये का योगदान दिन के उजाले की तरह साफ है। एक सज्जन कूरियर की तरफ से आते हैं। फटाफट संस्कृति के वाहक हैं और तेजी से अपना काम पूरा करते हैं। उन्हें अपनी कंपनी का साक्षात विज्ञापन कहा जा सकता है। कंपनी का कार्ड और मेरा पैकेट फेंकते हैं और तेजी से रफूचक्कर हो जाते हैं। एक अन्य पोस्टमैन मोपेड पर आते हैं, मगर ऐसा लगता है, जैसे हवाई घोड़े पर सवार हैं।

डाक को लाने और ले जाने के लिए सरकार में हरकारे, चतुर्थ श्रेणी कर्मचारी, मैसेंजर, अर्दली वगैरह भी होते हैं, जो डाक को एक स्थान से दूसरे स्थान तक लाते, ले जाते हैं। इसके बावजूद, डाक व्यवस्था की सबसे मजबूत कड़ी डाकिया या पोस्टमैन ही है। मगर शायद सबसे उपेक्षित भी। प्रेम-पत्र हो या निलंबन पत्र, डाकिये को तो पहुंचाना ही पड़ेगा। बात अधूरी रह जाएगी अगर मैं उस सहृदय डाकिए का जिक्र न करूं, जिसने जंगल में बने मकान तक मेरी डाक पहुंचाने में कभी कोताही नहीं की और मुझे अपनी नियुक्ति और प्रथम रचना के प्रकाशन की सूचना दी। बल्कि कहा जाए तो बिना डाकिये के लेखक का जीवन अधूरा है। डाकिया सच पूछा जाए तो लेखक का एक अच्छा मित्र होता है। पत्र-पत्रिका और पारिश्रमिक को लेखक तक पहुंचाने में सबसे महत्त्वपूर्ण कड़ी डाकिया ही है। दरअसल, बाकी दुनिया के लिए तो अहम है ही, किसी लेखक का अगर कोई अच्छा मित्र है तो वह है डाकिया, यह कहना अतिशयोक्ति नहीं होगी।