शोभना जैन
कुछ समय पहले तक भारतीय संसद की कैंटीन कुछ ज्यादा ही रियायती दरों पर भोजन उपलब्ध कराने के लिए चर्चा का विषय बनती थी। हालांकि दो साल पहले इस कैंटीन में खाने-पीने की चीजों की कीमतों में बढ़ोतरी करके इन्हें ‘तर्कसंगत’ बनाने का प्रयास किया गया। इसके बावजूद बाजार में आम लोगों को महंगाई के जिस स्तर का सामना करना पड़ रहा है, उसके मद्देनजर कई बार तुलनात्मक रूप से संसद की कैंटीन में खाने-पीने की चीजों की कम कीमतों पर सवाल उठते रहे। संसद की वही कैंटीन एक बार फिर चर्चा में है, लेकिन इस बार सकारात्मक वजहों से। दरअसल, शीतकालीन सत्र के पहले दिन से ही इस कैंटीन में अब सभी राज्यों के विशेष भोजन मिलने शुरू हो गए हैं। इसकी शुरुआत गुजराती खाने से हुई है, जिसमें ढोकला, दूधिया, फाफड़ा, थेपला और खमण जैसे लोकप्रिय गुजराती व्यंजन मिल रहे हैं। अच्छी बात यह है कि वहां सभी राज्यों से संबंधित जन-प्रतिनिधियों से लेकर संसद की खबरें दर्ज करने वाले पत्रकार और बाकी कर्मचारियों तक के बीच ये भोजन खासे लोकप्रिय हो रहे हैं।
गौरतलब है कि संसद की कैंटीन में मंत्रियों, सांसदों और वहां के कर्मचारियों के अलावा मेहमानों और पत्रकारों को भी सस्ते दाम पर खाना मिलता रहा है। अब तक इस कैंटीन में एक तयशुदा सूची के मुताबिक सामान्य भोजन और नाश्ते के अलावा चाय, कॉफी, दूध और लस्सी जैसी चीजें मिलती रही हैं। वहां मौजूद लोगों के पास चूंकि विकल्प नहीं होता था, इसलिए इस ओर शायद किसी का ध्यान नहीं गया होगा। जबकि संसद चूंकि देश भर के जन-प्रतिनिधियों के लिए एक जगह जमा होने की जगह है, इसलिए वहां की कैंटीन में मुहैया कराए जाने वाले भोजन में वैसे भी देश के अलग-अलग हिस्सों के खास भोजन उपलब्ध रहने चाहिए थे। तो देर से ही सही, इस कैंटीन में भारत की बहुरंगी संस्कृति के अनुरूप खान-पान मुहैया कराने की पहल हुई है।
गौरतलब है कि संसद भवन की कैंटीन का प्रबंध रेल मंत्रालय की खान-पान सेवा करती है। इसमें नई पहलकदमी का प्रस्ताव जब सामने आया तो उसे मंजूरी मिलने में कोई बाधा नहीं आई। इस पर अमल में सुविधा इसलिए भी हुई कि राजधानी दिल्ली में स्थित विभिन्न राज्यों के भवनों के सहयोग से उन प्रदेशों की पहचान को दर्शाने वाले विशेष भोजन सेंट्रल हॉल और संसद भवन की कैंटीन में मिलने शुरू हुए।
फिलहाल सबसे पहले गुजराती खान-पान को जगह मिली है, लेकिन देश की विविधता को दर्शाने वाले सभी राज्यों के रंग अब यहां दिखेंगे। इसके बाद अब कश्मीरी खाने का इंतजाम होगा, फिर ओड़िशा का नंबर आएगा। इसी तरह शायद बाकी राज्यों के भोजन की उपलब्धता इस कैंटीन का एक खास आकर्षण होगी।
मौजूदा समय में जो माहौल है, उसमें राहत की बात यह है कि इस पहल पर किसी तरह का राजनीतिक रंग नहीं चढ़ा और इस पहल को अमूमन सभी लोग काफी पसंद कर रहे हैं। इसलिए यह उम्मीद स्वाभाविक है कि दिल्ली की ठंड में कश्मीर का गरम कहवा आपसी समझ में भी गरमाहट लाएगा। इस मसले पर मेरे मन में एक सहज जिज्ञासा यह हुई कि कहीं यह कोई तात्कालिक इंतजाम तो नहीं है! लेकिन जितनी जानकारी मिल सकी, उसके मुताबिक खान-पान में विविधता और देश की छवि दिखने का यह सिलसिला बजट अधिवेशन में जारी रहेगा और उस समय भी बारी-बारी से सभी प्रदेशों और क्षेत्रों का खाना वहां मिल पाएगा।
दरअसल, पिछले कई सालों से संसद की कैंटीन में मिलने वाले भोजन की रियायती दरें जनता के बीच चर्चा का विषय थीं। लेकिन यह केवल महंगाई से उपजी प्रतिक्रिया के कारण तुलनात्मक निशाना नहीं था। बल्कि इससे काफी आर्थिक घाटा भी हो रहा था। तभी शायद यह राय बनी थी कि इसे बिना नफा-नुकसान के बजट में चलाया जाए। यों भी, इस महंगाई के दौर में अगर दो रुपए प्रति कप चाय के अलावा भोजन और नाश्ते पर इसी अनुपात में रियायती दरें लागू हों तो समझा जा सकता है कि इस मद में जारी बजट पर उसका क्या असर पड़ रहा होगा! एक आंकड़े के मुताबिक कैंटीन को हुए घाटे को पूरा करने के लिए हर साल सोलह करोड़ रुपए की सबसिडी दी जा रही थी।
जिस दौर में बहुत जरूरी वस्तुओं पर से भी सबसिडी कम या खत्म करने पर जोर दिया जा रहा है, उसमें संसद की कैंटीन में इतनी बड़ी राशि की सबसिडी का सवालों के घेरे में आना स्वाभाविक ही था। अब वहां खाने-पीने की चीजों की कीमतों को ‘तर्कसंगत’ बनाने का सवाल पूरी तरह हल हुआ हो या नहीं, लेकिन देश के अलग-अलग राज्यों की संस्कृति के मुताबिक जिस तरह स्वाद की विविधता पर ध्यान दिया गया है, वह स्वागतयोग्य है।