गिरीश पंकज

एक मित्र ने पिछले दिनों दुखी होकर बताया कि आजकल उनके पिता को रात को ठीक से नींद नहीं आती। वे अक्सर उदास रहने लगे हैं, विचलित-से नजर आते हैं। अस्सी साल पार कर चुके हैं, कोई गंभीर बीमारी भी नहीं है। बहुत चिड़चिड़े हो गए हैं, वगैरह-वगैरह। मैं उनके पिता से मिलने जा पहुंचा। उनके पैर छुए और पास ही बैठ गया। मैंने महसूस किया कि उन्होंने कोई खास उत्साह के साथ मेरा स्वागत नहीं किया, जैसा वे अक्सर किया करते थे। हिम्मत करके धीरे-से पूछ ही लिया, ‘बात क्या है चाचा जी, आप बहुत परेशान लग रहे हैं? चलिए डॉक्टर को दिखा लाते हैं।’ वे बोले, ‘इस दुनिया में इंसानियत मरती जा रही है। अखबार देखते हुए डर लगता है। टीवी की खबरें भी दुख से भर देती हैं। क्या होता जा रहा है हमारे समाज को?’
‘लेकिन हुआ क्या?’ मेरी बात सुन कर वे गंभीर हो गए और बोले, ‘पूछ रहे हो कि क्या हुआ? सौ साल की महिला के साथ बलात्कार, एक साल की बच्ची के साथ रेप, क्या ऐसी भयानक खबरें देख कर कोई चैन से सो सकता है भला, तुम लोग सो सकते हो। दुनिया सो सकती है लेकिन मैं नहीं सो सकता। दुनिया की पीड़ा मेरी पीड़ा है। सुखिया सब संसार है, खावै अरु सोवै, दुखिया दास कबीर है, जागे अरु रोवै। खा-पीकर सोने वाली इस दुनिया में रोज हिंसा हो रही है, बलात्कार की शर्मनाक घटनाएं तो रोज का सिलसिला हैं। उफ, अब ऊपर वाला मुझे उठा ले तो अच्छा।’

उनकी वेदना केवल उनकी अकेले की वेदना नहीं है। ऐसे अनेक बुजुर्ग हैं, जो अवसाद से ग्रस्त हैं। खासकर वे लोग जिन्होंने कभी सुख-शांति से बीतने वाला समय देखा है। ऐसे मुद्दे पर बातचीत करना मुझे उचित नहीं लग रहा था। लेकिन मैंने धीरे से कहा, ‘आपने बेहतर समय देखा है, गलत लोग तो हर दौर में रहे हैं लेकिन इतने अधिक कभी नहीं थे, जितने आज नजर आने लगे हैं। लोगों की सोच बदल रही है। विकृति को जैसे सामाजिक स्वीकृति मिलती जा रही है।’
वे भड़क कर बोले, ‘बेटा, सोचो तो जरा, यह कैसी दुनिया रची या रचाई जा रही है कि सारे जीवन मूल्य खत्म हो जाएं? क्या यही है प्रगति? अगर हां, तो नष्ट हो ऐसा विकास, जो मनुष्य को उसके गौरवशाली पद से नीचे गिरा रहा है। सौ साल की महिला जो सबकी माता है, उसके साथ कुकर्म करके उसकी हत्या कर दी जाती है। यह कैसी पाशविकता है? एक बच्ची जो अभी चलना भी नहीं सीख सकी है, जो देवीस्वरूपा है, उसके साथ गंदा काम किया जाता है, ऐसा नीच कर्म करने वाले कौन लोग हैं, क्या ये आदमी हैं या किसी अंतरिक्ष से उतरे भेड़िये? कौन हैं ये लोग, जिनको रत्ती भर का लिहाज नहीं। घरों में अकेले रहने वाले बूढ़े लोगों की हत्याएं हो रही हैं, राह चलती लड़कियों को उठा कर उनके साथ वासना का खेल खेला जा रहा है। क्या गांव, क्या शहर, हर जगह ऐसी घटनाएं हो रही हैं। लूटपाट की वारदातें निरंतर बढ़ रही हैं। ये सब देखता हूं तो मन दुखी हो जाता है। हे प्रभु, मेरी आंखें छीन ले, मुझे बहरा कर दे तू।’

इतना बोल कर वे फूट-फूट कर रोने लगे। स्वाभाविक ही अब मेरी आंखों में भी आंसू थे। कुछ बोलते नहीं बन रहा था। ऐसे वक्त में कोई क्या बोल सकता है। सचमुच, हालात ऐसे हो गए हैं, जिन्हें देख कर भावुक मन फट पड़ेगा ही। उन्हें सामान्य करने के लिए मैं पानी ले आया। मित्र तो उनके सामने ही नहीं आ रहा था। उन्होंने पानी का गिलास मुंह से लगाया, बस, फिर बोलने लगे, ‘इस भौतिकता ने सब कुछ नष्ट कर दिया है। बेटे, लड़के-लड़कियों की अभद्रताएं बढ़ती जा रही हैं। संस्कार, नैतिकता आदि की बातें करना ही बेकार है। अगर किसी लड़की के तन पर कम कपडे़ हैं तो कोई बोल नहीं सकता। पतन को आधुनिकता समझने की भूल करके लोग मस्त हैं। क्या किया जाए! जाओ बेटे, अपने काम पर। मेरी चिंता मत करो।’

इतना बोल कर वे ध्यानस्थ हो गए। मैं कमरे से बाहर निकल गया। दूसरे कमरे में मित्र बैठा था, वह टीवी देख रहा था। उसने टीवी की आवाज बंद कर रखी थी। हम दोनों हैरान थे कि लगभग हर चैनल पर बलात्कार और हत्या की खबरें प्रमुखता से दिखाई जा रही थीं। या तो ऐसी खबरें थीं या फिर नेताओं के सेक्स-वीडियो या सीडी की चटखारेदार चर्चाएं थीं। घोटाले और हिंसा की खबरें हर जगह चल रही थीं। उनकी बातें किसी वृद्ध का अनर्गल प्रलाप नहीं थीं। वास्तव में उनकी पीड़ा जायज थी। उनके आंसू इस निर्मम समय के विरुद्ध जैसे पीड़ा का महाकाव्य रच रहे थे, लेकिन हम कुछ कर भी नहीं सकते थे। हम सबके सामने यह जो नई भयावह दुनिया बनती जा रही है, पता नहीं वह आने वाले समय में और कितनी भयावह होगी।