सतीश खनगवाल

वक्त के साथ कैसे सब कुछ इतना बदल जाता है कि एक दौर में सबके लिए सबसे जरूरी चीजें बेमानी हो जाती हैं। कई बार शक्ल बदल लेती हैं तो पुरानी को याद करना भी जरूरी नहीं समझा जाता। अपने अतीत को याद करूं तो एक बड़ा हिस्सा हाथ से लिखी चिट्ठियों ने कभी मुझे दिलासा दिया, कभी दुखी किया तो कभी हौसला दिया। कभी जरूरतें पूरी कीं तो कभी मैंने सैकड़ों किलोमीटर दूर अपने शब्दों के जरिए अपना संदेश भेजा।

अब आज तेज रफ्तार वक्त में सोचता हूं कि अगर उन चिट्ठियों के भीतर उतर कर मैं दुनिया को संबोधित करूं तो क्या कहूंगा। आज उन चिट्ठियों से दुनिया अब इतनी अनजान हो गई दिखती है कि लगता है कि अब अपना परिचय इस रूप में दूं कि आप मुझे पत्र, खत, पाती आदि नामों से भी जानते हैं। आज भी सरकारी और विभागीय स्तरों पर मेरा प्रयोग जारी है, लेकिन आम लोग मेरा प्रयोग न के बराबर कर रहे हैं। वाट्सऐप, मैसेंजर, ईमेल, आदि में डूबी रहने वाली आज की युवा पीढ़ी इस बात का अंदाजा भी नहीं लगा सकती कि आज से महज बीस-पच्चीस साल पहले तक लोग कितनी बेसब्री से मेरी प्रतीक्षा करते थे।

डाकिए को देखते ही लोग बाहर दौड़ते और पूछते कि ‘हमारी कोई चिट्ठी आई है?’ मैं इस बात की साक्षी हूं कि ‘नहीं’ का जवाब सुन कर लोग कितना निराश होते थे और अगर डाकिया मुझे किसी के हाथ में पकड़ा देता तो उसकी प्रसन्नता का ठिकाना नहीं रहता था। पूरा का पूरा घर मुझे पढ़ने और सुनने के लिए बेताब होकर आंगन में इकट्ठा हो जाता। मैं उन पलों की भी साक्षी हूं, जब गांव-मोहल्ले में कोई इक्का-दुक्का पढ़ा-लिखा होता था और लोग मुझे पढ़वाने के लिए उनको ढूंढ़ा करते थे।

अगर आप तीस-पैंतीस साल पीछे चलें तो अपनों की कुशल-क्षेम पता करने और किसी प्रकार का समाचार भेजने का मैं एक मात्र साधन हुआ करती थी। सही है कि मेरा मित्र टेलीफोन था, लेकिन वह हर किसी के लिए आसानी से उपलब्ध नहीं होता था। मैं बहुत बड़ी बात नहीं करती, मगर यह बिल्कुल सच है कि मैं सबके सुख-दुख की भागी रही हूं। मुझे याद हैं वे दिन जब लोग मेरे जरिए अपने दिल के सभी जज्बात उड़ेल देते थे। कभी-कभी तो लिखने वाले के साथ-साथ पढ़ने वाले के भी आंसू टपक पड़ते।

उन दिनों देश की सीमा पर डटे जवानों के दो ही सहारे थे। एक विविध भारती और एक मैं। विविध भारती की प्रसारण सेवा जहां उनके मनोरजंन का साधन थी और देश को उनके साथ जोड़ती थी, वहीं मैं जवानों को उनके अपनों के साथ जोड़ती थी। जब देश का जवान कई-कई बार पढ़ कर मुझे चूमता था, जब एक मां मुझे आंचल में बांधे फिरती थी, जब एक पिता मुझे पढ़ता और अकेले में आंसू बहाता था, जब एक विरहिणी मुझे सीने से लगाए रखती थी, जब एक भाई को मैं उसकी बहन की राखी सरीखी लगती थी, जब एक बहन को मैं उसके भाई के वचन-सी लगती थी, जब किसी संतान को मैं माता-पिता के आशीर्वाद-सी लगती तो मुझे अहसास होता कि मैं महज कागज का एक टुकड़ा नहीं हूं, बल्कि मैं तो इन सबके लिए प्राणवायु हूं। इन सबको जोड़ने का एक ऐसा सेतु हूं जो कभी जर्जर नहीं हो सकता।

मगर जैसे-जैसे तकनीक का प्रयोग बढ़ता गया, वैसे-वैसे मेरे लिए मुश्किलें पैदा होने लगी। पहले कभी-कभी मैं बैरंग होती थी, लेकिन आज मेरी दुनिया बैरंग हो गई है। तार और टेलीफोन के बाद कंप्यूटर, इंटरनेट और मोबाइल का युग आया और यहीं से मेरे दुर्दिन शुरू हुए। हालांकि इसके लिए सारा दोष मैं तकनीक को नहीं देती। कहीं न कहीं सरकार, मेरा विभाग और वे लोग भी दोषी हैं, जिनके कंधों पर मेरी जिम्मेदारी थी। आज मैसेंजर, वाट्सऐप और ईमेल आदि को मेरे आगे खड़ा कर दिया गया है, क्योंकि ये सभी मुझसे तेज है और तुरंत अपने गंतव्य तक पहुंच जाते हैं। लेकिन एक सच यह है कि जितना प्यार मुझे अपने जमाने में लोगों से मिला, वह प्यार इनको कभी हासिल नहीं हो सकता। जो प्रेम, भावनाएं और संवेदनाएं मेरे अंदर समाहित होती थीं, वह आज की किसी भी तकनीक में नहीं हो सकती।

हालांकि अभी भी मुझसे स्नेह रखने वाले लोग मुझे जिंदा रखे हुए हैं। कुछ बुजुर्ग और साहित्यकार आज भी हाथों से लिख कर मेरे अंदर जान फूंकने का काम कर रहे हैं। वे अपने पुराने समय के पत्रों को निकाल कर पढ़ते हैं। साहित्य में पत्र-साहित्य का दौर चल निकला है। मेरी आप सभी से गुजारिश है महीने में कम से कम एक प्यार भरी पाती किसी के नाम लिखिए और युवा पीढ़ी को भी प्रेरित कीजिए। अन्यथा किसी को विश्वास भी नहीं होगा कि ‘फूल तुम्हें भेजा है खत में’, ‘चिट्ठी आई है,’ ‘चिट्ठी ना कोई संदेश’, ‘आएगी जरूर चिट्ठी मेरे नाम की’, ‘कबूतर जा जा जा’, ‘मैंने खत महबूब के नाम लिखा’, ‘हमने सनम को खत लिखा’ ‘डाकिया डाक लाया’, ‘चिठिया हो तो हर कोई बांचे’ आदि कर्णप्रिय गीत केवल मेरे ऊपर बने थे।