कभी-कभी कोई शब्द एक नए रूप में कैसे खिल उठता है समय और संदर्भ के साथ। ‘यार’ एक ऐसा ही शब्द है। एक सुबह पास के घर के एक बच्चे को कहते हुए सुना- ‘यार पापा…’। सुनते ही लगा कि इस ‘यार’ में कितना प्यार भी छिपा हुआ है। मानो बस प्यार में से आधा ‘प’ हटा लिया गया हो। ‘यार कहां जा रहे हो’, ‘यार क्या खा रहे हो’ ‘यार, मेरी बात तो सुनो’ जैसे वाक्य अब अक्सर बोले जाते हैं। बड़े खूब बोलते हैं, बच्चे भी सुनते और बोलते हैं। बिना उसका अर्थ जाने हुए। यार शब्द अब मुहावरा भी बन गया है। संबोधन का एक प्यार भरा रूप!

ठीक वैसे ही, जैसे ‘भैया’ है, ‘दोस्त’ है, ‘सुनिए’ है या इसी तरह के और शब्द हैं। हमारे बचपन में अगर यह शब्द बड़े-बुजुर्गों के साथ-साथ हम भी इस्तेमाल करते रहे हों कभी, तो वह अचरज की बात नहीं होगी। पर इतना जरूर कह सकता हूं कि तब ‘यार’ इतना प्रचलन में नहीं था। हम पिता को ‘यार’ कहें, इसकी तो कल्पना भी नहीं कर सकते थे। था तो शायद यह भी और आज भी है कि ‘यार’ का इस्तेमाल निंदा-स्तुति के लिए भी किया जाता था। मसलन, स्त्रियां कहती थीं, पुरुष भी, किसी स्त्री के लिए कि अमुक तो उसका ‘यार’ है, प्रेमी है! हालांकि उसके और भी रूप रहे हैं और आज भी हैं, जैसे ‘यारी-दोस्ती’। कई बार शब्दों का प्रयोग गांव और शहर के मुताबिक भी सहज और असहज लगता है। हम जिन शब्दों को लेकर सहज रहते हैं, उस पर हमारा ध्यान भी नहीं जाता है, जो शायद दूसरे को असहज दे सकता है।

संदर्भ का बड़ा महत्त्व है। वही तय करता है कि कब कौन-सा शब्द क्या अर्थ ले लेगा। किसी शब्द के प्रचलन का भी यह कमाल है कि वह अपना ‘अर्थ’ छोटे-बड़ों सब तक पहुंचा देता है। आशय भी। तो अब ‘यार’ इसी आशय का शब्द है कि मुझसे तुम्हारी दोस्ती है। जो सचमुच यार शब्द का अर्थ है- भाषिक संदर्भ में भी। बच्चा जब ‘यार पापा’, ‘यार मम्मी’ या अपने किसी दोस्त का नाम लेकर कहता है कि ‘यार आदित्य’, तो वह जानता है कि उसे अच्छा और प्यार भरा संबोधन ही माना जाएगा। दरअसल, ‘यार’ का प्रयोग अब निकट और आत्मीय होने का संकेत किए जाने वाले अर्थ में भी होता है। वह अक्सर किसी प्रियजन, परिजन के लिए ही हो तो सुरक्षित है।

यह भी गौर करने वाली बात है कि कुछ शब्द बोले जाने में ही खलते हैं, लिखे जाने में नहीं। सच तो यह है कि उनके लिखे जाने की ‘बारी’ आती ही कहां है! बस वे खूब बोले जाते हैं। उसी रूप में बने रहते हैं। खिलते हैं। सो, अब मैं भी कोई सामान पहुंचाने आने वाले लड़कों, युवकों तक से कह उठता हूं- ‘यार तुमने तो बड़ी देर लगा दी।’

यह संबोधन जुबान पर चढ़ गया है। किसी का नाम न मालूम हो और उसे आप संबोधित करना चाहते हों, तो तब भी यह जुबान पर आ जाता है। बॉलीवुड की फिल्मों ने भी ‘यार’ से याराना कराया है। ‘यारी है ईमान अपना…’ जैसे गीतों से लेकर, संवादों तक में इस शब्द का इस्तेमाल करके! अब आप जब किसी को किसी से यह कहते सुनते हैं- ‘यार…’ तो आप तुरंत समझ जाते हैं कि उन दोनों के बीच आत्मीयता है। इस शब्द की यात्रा भी अब गजब की है। वह वायुयान से उड़ता है, रेल से सफर करता है, बस से भी, कार-टैक्सी से भी चलता है, साइकिल, मोटरसाइकिल से भी। यानी वह कहां कहीं सुनाई नहीं पड़ता है, किस वाहन पर!

गूगल पर ‘यार’ शब्द को खोजा तो पाया कि एक हिंदी शब्दकोश में इसकी परिभाषा कुछ इस प्रकार दी हुई है- यार संज्ञा पु [फारसी]। मित्र, दोस्त। … हरत, ताप सब द्यौस को उर लगि यार बयारि। -बिहारी। 2- किसी स्त्री से अनुचित संबंध रखने वाला पुरुष। उपपति। जार। 3- सहायक। साथी। हिमायती। हां, एक शब्द के कई अर्थ होते हैं। और यह भी फिर दुहरा दें कि ये अर्थ संदर्भ के हिसाब से तय होते हैं। इसलिए जब किसी संदर्भ में किसी शब्द का रूप और अर्थ-प्रयोग बदलने लगता है, तो उसकी ओर हमारा ध्यान जाता ही जाता है। तो नया सामाजिक और पारिवारिक संदर्भ अब यह है कि एक सात-आठ साल का बेटा अपने पिता को संबोधित कर सकता है- ‘यार पापा…’! है न सुंदर संबोधन अब!

आज इस पर सोचते हुए यह बात एक बार फिर ध्यान में आ रही है कि अब जब कभी ‘यार पापा’ या ‘यार मम्मी’ सुनने को मिलेगा तो मुझे दोहरा आनंद आएगा। किसी शब्द-संदर्भ को सोचने का एक यह भी अच्छा नतीजा है कि हम उस पर नए सिरे से, बल्कि कई तरह से सोचने लगते हैं। शुभ शब्द को ही देखिए। अब कई लोग ‘सुप्रभात’ की जगह ‘शुभ प्रभात’ लिखने लगे हैं। ‘शुभ मंगल’, ‘शुभ सोमवार’ जैसे प्रयोग भी दिखते ही हैं। इसके अलावा, ‘शुभकामनाएं’ या ‘शुभकामना’ अपनी जगह मौजूद हैं ही। इसलिए शुभ हो यह ‘यार पापा…’ या फिर ‘यार, सुनो तो..’ आदि।